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________________ 82 अविकल्पक तोत्साहे सौगतस्येव चित्ते परानुग्रहता यस्य ॥२१॥ सौगत (बौद्ध) के दर्शन के समान भगवान् के उत्साह में निर्विकल्पकता थी, तथा चित्त में बुध नक्षत्र के समान परानुग्रहता थी ॥ २१ ॥ तात भावार्थ भगवान् चित्त में उत्साह युक्त रहते हुए भी संकल्प विकल्प रहित थे और वे सदा दूसरों का अनग्रह (उपकार) करने को तत्पर रहते थे । 1 सुतरूपस्थितिं द्दष्ट् वा तदा कन्यासमितिमन्वेष्टुं रामोपयोगिनीम् प्रभोः पिता प्रचक्राम ॥२२॥ उस युवावस्था में अपने पुत्र की रामोपयोगिनी अर्थात् विवाह के योग्य स्थिति को देखकर प्रभु के पिता ने कन्याओं के समूह को ढूंढने का उपक्रम किया । दूसरा श्लिष्ट अर्थ यह है कि आराम (उद्यान) के योग्य सुन्दर तरुओं (वृक्षों) की उपस्थिति को देखकर उसे क- न्यास अर्थात् जल-सिंचन लिए राजा ने विचार किया ॥२२॥ ! I प्रभुराह दारुणेत्युदिते निशम्येदं लोके तावत्किमुद्यते सदारताम् किमिष्टे ऽहं ॥२३॥ पिता के इस विवाह - प्रस्ताव को सुनकर भगवान् बोले- हे तात ! यह आप क्या कहते हैं ? लोक की ऐसी दारुण स्थिति में मैं क्या सदारता को स्वीकार करूं ? दूसरा श्लेषार्थ यह है कि दारु (काष्ठ) से निर्मित इस लोक में सदारता ( सदा + अरता) अर्थात् करपत्रता या करोंतपना अंगीकार करूं ? जैसे लकड़ी करोंत से कटकर खंड-खंड हो जाती है, वैसे ही क्या मैं भी सदारता को प्राप्त करके उसी प्रकार की दशा को प्राप्त होऊं ॥२३॥ एतद्वचोहिमाssक्रान्त- मनः क मलतां माता ते श्वश्रूनाम Jain Education International दर्शने बुधनभोगवत् प्रत्युवाच वचस्तातो जगदीश्वर मित्यदः नारों विना क्व नुश्छाया निश्शाखस्य तरोरिव ॥२४॥ भगवान् के उक्त वचन सुनकर पिता ने जगदीश्वर वीर भगवान् से पुनः कहा नारी के बिना नर की छाया (शोभा) कहां संभव है? जैसे कि शाखा रहित वृक्ष की छाया सम्भव नहीं है ||२४| 1 दधत् न सम्वहेत् नानुजानामि ॥२५॥ हिम (बर्फ) से आक्रान्त कमल की जैसी दशा हो जाती है, भगवान् के वचन से वैसी ही मनः स्थिति को प्राप्त होते हुए पिता ने पुन: कहा- तुम्हारी माता कभी 'सासू' इस नाम को नहीं धारण करेगी, ऐसा मैं नहीं जानता था ॥२५॥ For Private & Personal Use Only 1 - www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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