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यद्यपि वीर भगवान् बालकपन को धारण किये हुए थे, फिर भी वे न बालक प्रसिद्ध थे, अर्थात बालक नहीं थे । यह विरोध हुआ । इसका परिहार यह है कि वे नित बढ़ने वाले नवीन बालों (केशों) से युक्त थे । तथा वे मुक्तामय (मोती रूप ) होकर के भी कुवल (मोती) नहीं थे । यह विरोध हुआ। इसका परिहार यह है कि ये भगवान् मुक्त- आमय अर्थात् रोग-रहित थे, अतएव दुर्बल नहीं, अपितु अतुल बलशाली थे ॥ १६ ॥
कौमारमतिवर्त्य
I
अतीत्य समक्षतोचितां
काय-स्थितिमाप
महामनाः
॥१७॥
उन महामना भगवान् ने आलस्य रहित होकर, तथा बालकपने को बिताकर एवं कुमारपने का उल्लघंन कर किन्तु कामदेव की वासना से रहित होकर रहते हुए सुन्दर, सुडौल अवयवों वाली सर्वाङ्ग पूर्ण यौवन अवस्था रूप शारीरिक स्थिति को प्राप्त किया । अर्थात् युवावस्था में प्रवेश किया ||१७||
नाभिमानप्रसङ्गेन
कासारमधिगच्छता
बाऽलस्यभावं
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न
मत्सरस्वभावत्वमुपादायि
महात्मना
॥१८॥
भगवान् उस अवस्था में निरभिमानपने से कासार, अर्थात् आत्म-चिन्तन करते हुए लोगों में मत्सर भाव से रहित थे । दूसरा अर्थ यह है कि अपनी नाभि के द्वारा सौन्दर्य प्रकट करते हुए वे कासार अर्थात् सरोवर की उपमा को धारण करते थे ॥१८॥
वाचः
मृदुपल्लवतां शरधिप्रतिमानत्वं
स्फुरणे
चित्ते
चोरुयुगे
पुनः
॥१९॥
युवावस्था में भगवान् वचन - स्फुरण, अर्थात् बोलने में मृदुभाषिता को और दोनों हाथों में कोमलपल्लवता ( कोंपल समान मृदुता) को, तथा चित्त में और दोनों जंघाओं में शरधि- समानता को धारण करते थे । अर्थात् चित्त में तो शरधि ( जलधि) के समान गम्भीरता थी और जंघाओं में शरधि ( तूणीर) के समान उतार चढ़ाव वाली मांसलता थी ॥१९॥
यस्य
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व्यासोपसंगृहीतत्वं स्फुरत्तमः स्वभावत्वं
वक्षसि वेदवत् कचवृन्दे च नक्तवत्
॥२०॥
उन भगवान् के वक्षःस्थल में वेद के समान व्यासोपसंगृहीतता थी, अर्थात् जैसे व्यासजी ने वेदों का संकलन किया है, उसी प्रकार भगवान् का वक्षस्थल व्यास वाला था, अर्थात् अति विस्तृत था । उनके केश - समूह में रात्रि के समान स्फुटित- तमः स्वभावता थी, अर्थात् उनके केश चमकदार और अत्यन्त काले थे ||२०||
च
च करद्वये
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