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सुरपेण सहस्त्रसंभुजैरभिषिक्तः सहसा स नीरुजैः न मनागपि खिन्नतां गतः सहितस्तीर्थकरत्वतो यतः
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॥३०॥
इन्द्र ने अपनी सहज नीरोग सहस्र भुजाओं से सहसा ( एक साथ ही एक हजार कलशों से ) अभिषेक किया, किन्तु बालं रूप भगवान् जरा-सी भी खिन्नता को प्राप्त नहीं हुए । सो यह उनकी तीर्थङ्कर प्रकृति-युक्त होने का प्रताप है ||३०||
कुसुमाञ्जलिवद्धभूव साऽम्बुततिः पुष्ट तमेऽतिसरं सात् । निजगाद स विस्मयो गिरा भुवि वीरोऽयमितीह देवराट् ॥३१॥
अत्यन्त पुष्ट अर्थात् वज्रमयी भगवान् के शरीर पर अत्यन्त उत्साह से छोड़ी गई वह विशाल जल की धारा पुष्पों की अञ्जलि के समान प्रतीत हुई। उसी समय देवराज इन्द्र ने आश्चर्य चकित होकर परम हर्ष से 'यह वीर जिनेन्द्र हैं। ऐसा अपनी वाणी से कहा ||३१||
परितः प्रचलज्जलच्छलान्निखिलाश्चापि दिशः समुज्जवलाः । स्मितयुक्तमुखा इवाबभुरभिषिक्तः स यदा जिनप्रभुः ॥३२॥
जिस समय श्री जिनप्रभु का अभिषेक किया गया। उस समय सर्व ओर फैलते हुए जल के बहाने से मानों सभी दिशाएँ अति उज्जवल मन्द हास्य युक्त मुख वाली सी शोभित हुई ||३२|| तरलस्य ममाप्युपायनं प्रभुदेहं दिवसेऽद्य यत्पुनः जलमुच्चलमाप तावतेन्द्रपुरं सम्प्रति हर्ष सन्ततेः
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॥३३॥
आज के दिन अति चंचल भी मैं भगवान् की देह का उपहार बना, यह सोच करके ही मानों क्षीर सागर का वह जल अपनी हर्ष परम्परा से इन्द्र के पुर तक ऊपर पहुँचा ॥३३॥
शशिनाऽऽप विभुस्तु काञ्चन- कलशाली सह सन्ध्यया पुनः । प्रसरज्जलसन्ततिः सतां हृदये चन्द्रिकया समानताम् ॥३४॥
अभिषेक के समय भगवान् ने तो चन्द्र के साथ, सुवर्ण कलशों की पंक्ति ने सन्ध्या के साथ और फैलते हुए जल की परम्परा ने चन्द्रिका के साथ सज्जनों के हृदय में समानता प्राप्त की ||३४|
कथमस्तु जड प्रसङ्ग ताऽखिलविज्ञानविधायिना सता 1 सह चेति सुरेशजायया स पुनः प्रोञ्छित ईश्वरो रयात् ॥३५॥ समस्त विज्ञान के विधायक इन संत भगवान् के साथ जड़ (जल और मूर्ख मनुष्य) का प्रसंग कैसे होवे, ऐसा विचार करके ही मानों इन्द्र की इन्द्राणी ने भगवान् के शरीर को शीघ्रता से पोंछ दिया ॥३५॥
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