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चरररररररररररररररररररररररररररररररर पक्ष में इस प्रकार लेना चाहिए कि उठे हुए कुचों वाली, अखण्ड रूप-सौन्दर्य की धारक, तथा मस्तक पर तिलक लगाये हुए, ऐसी स्त्री के समान समुद्र की तट-सम्पदा को देवताओं ने देखा ॥२५॥
प्रततावलिसन्ततिस्थितिमिति वा नीरदलक्षणान्वितिम् । प्रविवेद च देवता ततः विशदाक्षीरहितस्य तत्त्वतः ॥२६॥
देवों ने उस क्षीर सागर को एक वृद्ध पुरुष के समान अनुभव किया । जैसे वृद्ध पुरुष बलियों (बुढ़ापे में होने वाली शरीर की झुर्रियों) से युक्त होता है, उसी प्रकार यह समुद्र भी विस्तृत तंरगों की मालाओं से युक्त है । वृद्ध पुरुष जैसे बुढ़ापे में दन्त-रहित मुख वाला हो जाता है, उसी प्रकार यह क्षीर सागर भी जन्माभिषेक के समय नीर-दल (जलांश) के प्रवाह रुप से युक्त हो रहा है । वृद्ध पुरुष जैसे बुढ़ापे में विशद-नयन वाली नायिका से रहित होता है, उसी प्रकार यह समुदर भी विशद क्षीर-(दुग्ध) तुल्य रस वाला है । अतएव देवों ने उस क्षीर सागर को एक वृद्ध पुरुष के समान ही समझा ॥२६॥
मृदुपल्लवरीतिधारिणी मदनस्यापि विकासकारिणी ।
शरजातिविलग्नसम्पदा सुखमेतत्प्रणतिः सुरेष्वदात् ॥२७॥
कोमल पत्रों की रीति की धारण करने वाली तथा कोमल चरणों वाली काम की एवं आम्र वृक्ष की विकास-कारिणी शरजाति के घास विशेष से युक्त और बाण के समान कृश उदर वाली ऐसी उस क्षीर सागर की वेला देवों में सुख की देने वाली हुई ॥२७॥
सुरसार्थपतिं तमात्मनः प्रभुमित्येत्य सुपर्वणां गणः । वहति स्म शिरस्सु साम्प्रत-मभितो वृद्धमवेत्य तं स्वतः ॥२८॥
उस देव-समूह ने सुरस (उत्तम-जल) रूप अर्थ के स्वामी, अथवा देव-समुदाय के स्वामी उसे अपना प्रभु इन्द्र जानकर तथा, सर्व ओर से वृद्ध हुए ऐसे क्षीर सागर को अपने शिरों पर धारण किया ॥२८॥ ___भावार्थ -वे देवगण क्षीर सागर का जल कलशों में भर कर और अपने मस्तकों पर रख कर लाये ।
जिनराजतनुः स्वतः शुचिस्तदुपायेन जलस्य सा रुचिः ।
जगतां हितकृद् भवेदिति हरिणाऽकारि विभोः सवस्थितिः ॥२९॥
यद्यपि जिनराज का शरीर स्वतः स्वभाव पवित्र था, तथापि इस जल को भी भगवान् के शरीर के सम्पर्क से पवित्रता प्राप्त हो और यह सर्व जगत् का हितकारक हो जाय, यह विचार कर इन्द्र ने भगवान् का अभिषेक किया ॥२९॥
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