SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 167
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 74 निजनीतिचतुष्टयान्वयं गहनव्याजवशेन धारयन् 1 निखिलेष्वपि पर्वतेष्वयं प्रभुरूपेण विराजते स्वयम् ॥२१॥ अपनी नीति-चतुष्टय (आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता और दण्डनीति या साम, दाम, दंड और भेद) को चार वनों के ब्याज से धारण करता हुआ यह सुमेरु समस्त पर्वतों में स्वयं स्वामी रूप से विराजमान है, ऐसा मैं समझता हूँ ॥२१॥ गुरुमभ्युपगम्य गौरवे शिरसा मेरुरुवाह संस्तवे I प्रभुरेष गभीरताविधेः स च तन्वा परिवारितोऽग्निधेः ॥२२॥ जन्माभिषेक के उत्सव के समय जिन भगवान् की गुण- गरिमा को देखकर सुमेरु ने जगद्-गुरु भगवान् को अपने शिर पर धारण किया । तथा यह भगवान् गम्भीरता रूप विधि के स्वामी हैं, ऐसा समझकर क्षीर सागर ने अपने जल रूप शरीर से भगवान् का अभिषेक किया ॥२२॥ भावार्थ - सुमेरु का गौरव और समुद्र की गंभीरता प्रसिद्ध है । किन्तु भगवान् को पाकर दोनों ने अपना अहंकार छोड़ दिया । . अतिवृद्धतयेव सन्निधिं समुपागन्तुमशक्यमम्बुधिम् 1 अमराः करुणापरायणाः समुपानिन्युरथात्र निर्घृणाः ॥२३॥ पुनः अत्यन्त वृद्ध होने से भगवान् के समीप आने को असमर्थ ऐसे क्षीर सागर को ग्लानि-रहित और करुणा में परायण वे अमरगण उसे भगवान् के पास लाये ॥२३॥ भावार्थ देवगण भगवान् के अभिषेक करने के लिए क्षीरसागर का जल लाये । उसे लक्ष्य करके कवि ने यह उत्प्रेक्षा की है, कि वह अति वृद्ध होने से स्वयं आने में असमर्थ था, सो जल लाने के बहाने से मानों वे क्षीर सागर को ही भगवान् के समीप ले आये हैं । अयि मञ्जुलहर्युपाश्रितं सुरसार्थप्रतिसेवितं हितम् । निजसद्मवदम्बुधिं क्षणमनुजग्राह च देवतागण: ।।२४।। हे मित्र ! सुन्दर लहरियों से संयुक्त और सुरस जल रूप अर्थ से, अथवा देव- समूह से सेवित, हितकारी उस क्षीर सागर की आत्मा का उन देवगणों ने अपने भवन के समान ही अनुग्रह किया ॥२४॥ समुदालकु चाञ्चितां हितां नितरामक्षतरूपसम्मिताम् । तिलकाङ्कितभालसत्पदामनुगृह्णात्युदधेः स्म सम्पदाम् ॥२५॥ वे देवतागण उदार लीची वृक्षों से युक्त, अखरोट या बहेड़ों के वृक्षों वाली, तथा तिलक जाति के वृक्षों की पंक्ति वाले समुद्र के तट की सम्पदा का निरीक्षण कर रहे थे । इसका दूसरा अर्थ स्त्री Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy