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बृहदुन्नतवंशशालिनः शिरसीत्थं मुकुटानुकालिनम् । समरोपयदेष सम्पतं पुनरै रावणवारणस्य तम् ॥१६॥
पुनः इस इन्द्र ने बड़े उन्नत वंशवाली ऐरावत हाथी के सिर पर मुकुट का अनुकरण करने वाले उन जिन भगवान् को विराजमान किया ॥१६॥
सुरशैलमुपेत्य ते पुनर्जिनजन्माभिषवस्य वस्तुनः ।। विषयं मनसाऽथ मुद्धरा परिकर्तुं प्रतिचक्रिरे सुराः ॥१७॥
पुनः वे सब देव सुरशैल (सुमेरु) को प्राप्त होकर भगवान् को जन्माभिषेक का विषय बनाने के लिये अर्थात् अभिषेक करने के लिए हर्षित चित्त से उद्यत हुए ॥१७॥
सुरदन्तिशिर:स्थितोऽभवद् घनसारे स च के शरस्तवः । शरदभ्रसमुच्चयोपरि परिणिष्ट स्तमसां स चाप्यरिः ॥१८॥
उस समय सुरगज ऐरावत के शिर पर अवस्थित भगवान् ऐसे शोभित हुए, मानों कर्पूर के समूह पर केशर का गुच्छक ही अवस्थित हो । अथवा शरत्कालीन शुभ्र मेघपटल के ऊपर अन्धकार का शत्रु सूर्य ही विराजमान हो ॥२८॥
वनराजचतुष्ट येन यः पुरुषार्थस्य समर्थिना जयन् । प्रतिभाति गिरीश्वरः स च सफलच्छायविधिं सदाचरन् ॥१९॥
पुरुष के चार पुरुषार्थों को समर्थन करने वाले चार वनराजों से विजयी होता हुआ वह गिरिराज सुमेरु सदा फल और छाया की विधि को आचरण-सा करता हुआ प्रतिभासित हो रहा था ॥१९॥
भावार्थ - जैसे कोई पुरुष चारों पुरुषार्थ को करता हुआ सफल जीवन-यापन करता है, उसी प्रकार यहां सुमेरु भी चारों ओर वनों से संयुक्त होकर नाना प्रकार के फलों और छाया को प्रदान कर रहा है, ऐसी उत्प्रेक्षा यहां कवि ने की है ।
जिनसद्मसमन्वयच्छ लाद् धृतमूर्तीनि विभर्ति यो बलात् ।
अपि तीर्थकरत्वकारणान्युपयुक्तानि गतोऽत्र धारणाम् ॥२०॥
जिन-भवनों ने समन्वय के छल से मानों यह सुमेरु तीर्थङ्कर पद के कारण-भूत सोलह कारण भावनाओं का ही हठात् मूर्ति रूप को धारण कर शोभित हो रहा है ॥२०॥
भावार्थ - सुमेरु पर्वत पर अवस्थित सोलह जिनालयों को लक्ष्य करके कवि ने उक्त उत्प्रेक्षा की
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