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स्फटिकाभक पोलके विभोः स्वद्दगन्तं प्रतिबिम्बितं च भोः ।
परिमार्जितुमाद्दता शची व्यतरत्सत्स्वथ सस्मितां रुचिम् ॥३६॥
भगवान् के स्फटिक मणि के तुल्य स्वच्छ कपोल पर प्रतिबिम्बित अपने कटाक्ष को ( यह कोई कालिमा लग रही है, यह समझ करके) बार-बार परिमार्जन करने को उद्यत उस इन्द्राणी ने देवों में मन्द हास्य- युक्त शोभा को प्रदान किया ||३६||
भावार्थ - भगवान् के कपोल पर प्रतिबिम्बत अपने ही कटाक्ष को भ्रम से बार-बार पोंछने पर भी उसके नहीं मिटने पर देवगण इन्द्राणी के इस भोलेपन पर हंसने लगे ।
प्रीतिमात्रावगम्यत्वात्तमिदानीं भूषणैर्भूषयामास
पुलोमजा जगदेकविभूषणम्
॥३७॥
यद्यपि, भगवान् सहज ही अति सुन्दर थे, तथापि नियोग को पूरा करने के लिए इस समय हर्षित इन्द्राणी ने जगत् के एक मात्र ( अद्वितीय) आभूषण स्वरूप इन भगवान् को नाना प्रकार के भूषणों से विभूषित किया ||३७||
कृत्वा जन्ममहोत्सवं जिनपतेरित्थं सुरा सादरं, श्लाघाऽधीनपदैः प्रसाद्य पितरं सम्पूज्य वा मातरम् । सम्पोष्यापि पुरप्रजाः सुललितादानन्दनाट्यादरं, स्वं स्वं धाम ययुः समर्प्य जिनपं श्रीमातुरङ्के परम् ॥३८॥
इस प्रकार आदर के साथ सर्व देवगण जिनपति वीर भगवान् के जन्माभिषेक का महान् उत्सव करके और अत्यन्त प्रशसनीय वचनों से सिद्धार्थ पिता को प्रसन्न कर तथा त्रिशला माता की पूजा करके, एवं अपने सादर किये हुए आनन्द नाटक ( ताण्डव नृत्य) से पुरवासी लोगों को आनन्दित करके और माता की गोद में भगवान् जिनेन्द्र को सौंप करके अपने-अपने स्थान को गये ||३८||
श्रीमान् श्रेष्ठिचतुर्भुजः स सुषुवे वाणीभूषण वर्णिनं घृतवरी देवी च
आगत्याथ
सुरैरकारि
भूरामले त्याह्वयं, यं धीचयम् ।
च विभोर्मेरौ समासेचन, निरगात्सर्गे नयप्रार्थनः 11911
मित्यस्याभिनिवेदितऽत्र
इस प्रकार श्रीमान् सेठ चतुर्भुज और घृतवरी देवी से उत्पन्न हुए, वाणी- भूषण, बाल ब्रह्मचारी पं. भूरामल वर्तमान मुनि ज्ञानसागर द्वारा विरचित इस काव्य में वीर भगवान् के जन्माभिषेक का वर्णन करने वाला यह नयों की संख्या वाला सातवां सर्ग समाप्त हुआ ||७||
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