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________________ अथ जन्मनि सन्मनीषिणः प्रससाराप्यभितो यशःकिणः । जगतां त्रितयस्य सम्पदा क्षुभितोऽभूत्प्रमदाम्बुधिस्तदा ॥१॥ इस समय सन्मनीषी भगवान् का जन्म होने पर उनके यश का पूर चारों ओर फैल गया । उस समय तीनों जगत् की सम्पदा से आनन्द रूप समुद्र क्षोभित हो गया । अर्थात् सर्वत्र आनन्द फैल गया ॥१॥ पटहोऽनददद्रिशासिनां भुवि घण्टा ननु कल्पवासिनाम् । उरगेषु च शंखसध्वनिर्ह रिनादोऽपि नभश्चराध्वनि ॥२॥ उस समय पर्वत के पक्ष-शातन करने वाले व्यन्तरों के गृहों में भेरी का निनाद (उच्च शब्द) होने लगा । कल्पवासी देवों के विमानों में घण्टा का नाद हुआ, भवनवासी देवों के भवनों में शंखों की ध्वनि हुई और ज्योतिषी देवों के विमानों में सिंहनाद्र होने लगा ॥२॥ न मनागिह तेऽधिकारिता नमनात्स्वीकुरु किन्तु सारिताम् । जिनजन्मनि वेत्थमाह रे प्रचलद्वै हरिविष्टरं हरे: ॥३॥ उस समय जिन भगवान् का जन्म होने पर इन्द्र का सिंहासन कम्पायमान हुआ, मानों वह यह कह रहा था कि हे हरे ! अब इस पर बैठे रहने का तेरा कुछ भी अधिकार नहीं है । अब तू भगवान् के पास जाकर और उन्हें नमस्कार कर अपने जीवन को सफल बना ॥३॥ न हि पञ्चशतीद्वयं दशां क्षममित्यत्र किलेति विस्मयात् । अवधिं प्रति यत्नवान भूदवबोद्धं घुसदामयं प्रभुः ॥४॥ उस समय देवों का स्वामी यह इन्द्र मेरे ये सहस्र नेत्र भी सिंहासन के हिलने का कारण जानने में समर्थ नहीं है, यह देखकर ही मानों आश्चर्य से यथार्थ रहस्य जानने के लिए अवधिज्ञान का उपयोग करने को प्रयत्नशील हुआ ॥४॥ अवबुध्य जनुर्जिनेशिनः पुनरुत्थाय ततः क्षणादिनः । प्रणनाम सुपर्वणां सतां गुणभूमिर्हि भवेद्विनीतता ॥५॥ अवधिज्ञान से जिनेन्द्र देव का जन्म जानकर तत्काल अपने सिंहासन से उठकर देवों के स्वामी उस इन्द्र ने (जिस दिशा में भगवान् का जन्म हुआ था, उस दिशा में सात पग आगे जाकर भगवान् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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