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________________ ccccc 71 cccccccccccccc को (परोक्ष) नमस्कार किया । सो यह ठीक ही है, क्योंकि विनीतता अर्थात् सज्जनों के गुणों के प्रति आदरभाव प्रकट करना ही समस्त गुणों का आधार है ॥५॥ जिनवन्दनवेदिडिण्डिमं स मुदा दापितवान् जवादिमम् । प्रतिपद्य समाययुः सुरा असुरा अप्यखिला निजात्पुरात् ॥६॥ उस इन्द्र ने हर्षित होकर तत्काल जिन-वन्दना को चलने की सूचना देने वाली ढिंढोरी दिलवाई और उसे सुनकर सभी सुर और असुर शीघ्र अपने-अपने पुरों से आकर एकत्रित हुए ॥६॥ निरियाय स नाकिनायकः सकलामर्त्य निरुक्तकायकः । निजपत्तनतोऽधुना कृती नगरं कुण्डननामकं प्रति ॥७॥ पुनः वह कृती देवों का स्वामी सौधर्म इन्द्र सर्व देव और असुरों से संयुक्त होकर अपने नगर से कुण्डनपुर चलने के लिए निकला |७|| प्रततानुसृतात्मगात्रकै रमरैर्ह स्तितपुष्पपात्रकै: सह नन्दनसम्पदप्यभूद्विरहं सोढुमिवाथ चाप्रभुः ॥८॥ जिनके शरीर आनन्द से भरपूर हैं और जिनके हाथों में पुष्पों के पात्र हैं, ऐसे देवों के साथ नन्दनवन की सम्पदा भी चली । मानों विरह को सहने के लिए असमर्थ होकर ही साथ हो ली है ॥८॥ कबरीव नभोनदीक्षिता प्रजर त्याः स्वरधिश्रियोहिता । स्फटिकाश्मविनिर्मितस्थलीव च नाकस्य विनिश्चलावलिः ॥९॥ मध्यलोक को आते हुए उन देवों ने मार्ग में नभोनदी (आकाश गंगा) को देखा, जो ऐसी प्रतीत होती थी मानों अत्यन्त वृद्ध देव-लक्ष्मी की वेणी ही हो, अथवा स्फटिक मणियों से रचित स्वर्ग-लोक के मुख्य द्वार की निश्चलता को प्राप्त देहली ही हो ॥९॥ अरविन्दधिया दधद्रविं पुनरैरावण उष्णसच्छविम् । धुतहस्ततयात्तमुत्यजन्ननयद्धास्यमहो सुरव्रजम् ॥१०॥ पुनः आगे चलते हुए इन्द्र के ऐरावत हाथी ने कमल समझ करके सूर्य को अपनी सूंड से उठा लिया और उसे उष्णता-युक्त देखकर तुरन्त ही सूंड को झड़का कर उस ग्रहण किए हुए सूर्य को छोड़ दिया और इस प्रकार उसने देव-समूह को हंसा दिया ॥१०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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