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________________ ररररररररररररररररररररररररर इस वसन्त ऋतु में यह पुष्पों का रज (पराग) सर्व ओर फैल जाता है सो ऐसा प्रतीत होता है, मानों वसन्त लक्ष्मी के मुख की शोभा को बढ़ाने वाला चूर्ण (पाउडर) ही हो, अथवा वियोगी जनों की भस्म ही हो, अथवा श्री मीनकेतु (कामदेव) की ध्वजा का वस्त्र ही हो ॥२५॥ श्रेणी समन्ताद्विलसत्यलीनां पान्थोपरोधाय कशाप्यदीना । वेणी वसन्तश्रिय एव रम्याऽसौ श्रृङ्खला कामगजेन्द्रगम्या ॥२६॥ इस वसन्त के समय भौंरो की श्रेणी सर्व ओर दिखाई देती है, वह ऐसी प्रतीत होती है, मानों पथिक जनों के रोकने के लिए विशाल कशा (कोड़ा या हण्टर) ही हो, अथवा वसन्त लक्ष्मी की रमणीय वेणी ही हो, अथवा कामरूपी गजराज के बांधने की सांकल ही हो ॥२६॥ प्रत्येति लोको विटपोक्तिसारादङ्गारतुल्यप्रसवोपहारात् । पलाशनामस्मरणादथायं समीहते स्वां महिला सहायम् ॥२७॥ संसारी जन 'विटप' इस नाम को सुनकर उसे वृक्ष जान उस पर विश्वास कर लेता है किन्तु जब समीप जाता है, तो उसके अंगार-तुल्य (हृदय को जलाने वाले) फूलों के उपहार से शीघ्र ही उसके 'पलाश' (पल-मांस का भक्षण करने वाला) इस नाम के स्मरण से (अपनी रक्षा के लिए) अपनी सहायक स्त्री को याद करने लगता है ॥२७॥ ___ भावार्थ - 'विटप' नाम वृक्ष का भी है और विटजनों के सरदार भडुआ का भी है । पलाश नाम ढाक के वृक्ष का है और मांस भक्षी का भी है । मदनमर्मविकाससमन्वितः कु हरितायत एष समुद्भुतः । सुरतवारि इवाविरभूत्क्षणः स विटपोऽत्र च कौतुकलक्षणः ॥२८॥ यह वसन्त का समय रति-क्रीड़ा के समान है, क्योंकि रतिकाल में मदन के मर्म का विकास होता है और इस वसन्त में आम्र वृक्ष के मर्म का विकास होता है । रतिकाल में कुहरित (सुरतशब्द) होता है, इस समय कोयल का शब्द होता है । रतिकाल में विटप (कामी) लोग कौतुकयुक्त होते हैं और वसन्त में प्रत्येक वृक्ष पुष्पों से युक्त होता है ॥२८॥ कलकृतामितिझंकृतनूपुरं क्वणितकिङ्किणिककृतङ्कणम् । मृगद्दशां मुखपद्मदिद्दक्षया रथमिनः कृतवान् किल मन्थरम् ॥२१॥ इस वसन्त में मीठी बोली बोलने वाली, नूपुरों के झंकार को प्रकट करने वाली, जिनकी करघनी की घंटियां बज रही हैं और जिनके कंकण भी झंकार कर रहे हैं, ऐसी मृगनयनी स्त्रियों के मुख कमल को देखने की इच्छा से ही मानों सूर्य देव ने अपने रथ की गति को मन्द कर दिया है ॥२९॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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