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________________ 'सररररररररररर 64 रररररररररररररररर जिसकी मंजरी के भीतर भ्रमर गुंजार कर रहा है, ऐसे आम्र का 'सहकार' अर्थात् सहकाल (कालयमराज का साथी) यह नाम असत्य नहीं है, क्योंकि आम का वृक्ष आंख से देखने मात्र से ही पथिक जनों के लिए मरण को करने वाला है, ऐसा हम कहते हैं ॥२१॥ ____ भावार्थ - पुष्प-मंजरी-युक्त आम्र-वृक्ष को देखते ही प्रवासी पथिक जनों को अपनी प्यारी स्त्रियों की याद सताने लगती है । सुमोद्गमः स प्रथमो द्वितीयः भृङ्गोरुगीतिर्मरुदन्तकीयः । जनीस्वनीतिः स्मरबाणवेशः पिकस्वनः पञ्चम एष शेषः ॥२२॥ कामदेव के पांच बाण माने जाते हैं । उनमें पुष्पों का उद्गम होना यह पहिला बाण है, भ्रमरों की उदार गुंजार यह दूसरा बाण है, दक्षिण दिशा की वायु का संचार यह तीसरा बाण है, स्त्रियों की स्वाभाविक चेष्टा यह चौथा बाण है और कोयलों का शब्द यह पांचवां बाण है ॥२२॥ भावार्थ - वसन्त ऋतु में काम-देव अपने इन पांचों बाणों के द्वारा जगन् को जीतता है । अनन्ततां साम्प्रतमाप्तवद्भिः स्मरायुधैः पञ्चतया स्फुरद्भिः । विमुक्तया कः समलक्रियेत वियोगिवर्गादपरस्तथेतः ॥२३॥ कवि-मान्यता के अनुसार काम के पांच बाण माने जाते हैं, किन्तु इस वसन्त ऋतु में बाण अनन्तता को प्राप्त हो रहे हैं (क्योंकि चारों ओर पुष्पोद्गम आदि दृष्टिगोचर होने लगता है ।) अतएव काम के बाणों के द्वारा छोड़े गये पंचत्व (पांच संख्या और मृत्यु) से वियोगी जनों को छोड़कर और कौन ऐसा पुरुष है जो कि समलङ्कृत किया जाय। अर्थात् वसन्त काल में वियोगी जन ही काम के बाणों के निशान बनते हैं ॥२३॥ समन्ततोऽस्मिन् सुमनस्त्वमस्तु पुनीतमाकन्दविधायि वस्तु । समक्ष माधादतिवर्तमाने तथा पिक स्योदयभृद्विधाने ॥२४॥ हे समक्ष (सम्मुख उपस्थित सुन्दर इन्द्रिय वाले मित्र) ! माघ के पश्चात् आने वाले, आम्र वृक्षों को सफल बनाने वाले और कोयल के आनन्द-विधायक इस फाल्गुण मास या वसन्त काल में सर्व ओर फूलों का साम्राज्य हो रहा है, सो होवे । दूसरा अर्थ - हे समक्षम (सदा क्षमा के धारक) मित्र! पाप से दूर रहने वाले और आत्मकल्याण के विधान को स्वीकार करने वाले इस ऋतुराज वसन्त में लक्ष्मी को बढ़ाने वाला सुमनसपना (देवपना) सहज ही प्रकट हो रहा है ॥२४॥ ऋतुश्रियः श्रीकरणञ्च चूर्णं वियोगिनां भस्मवदत्र तूर्णम् । श्रीमीनकेतोर्ध्वजवस्त्रकल्पं पौष्ण्यं रजोऽदः प्रसरत्यनल्पम् ॥२५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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