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भावार्थ - वसन्त ऋतु में सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण हो जाता है । इस बात को लक्ष्य करके कवि ने उत्प्रेक्षा की है कि वसन्तकाल में दक्षिणी मलयानिल बहने लगता है, उसमें मलयाचल स्थित चन्दन-वृक्षों की सुगन्ध के साथ उन पर लिपटे हुए सर्यों के विश्वास का विष भी मिला हुआ है, वह कहीं मुझ पर कोई दुषप्रभाव न डाले, इस भय से ही मानों सूर्य दक्षिण से उत्तर की ओर गमन करने लगता है ।
जनीसमाजादरणप्रणेतुरसौ सहायः स्मरविश्वजेतुः ।। वनीविहारोद्धरणैक हे तुर्वियोगिवर्गाय तु धूमके तुः ॥१७॥
यह वसन्त-ऋतु स्त्री-समाज में आदर भाव के उत्पन्न करने वाले विश्व-विजेता काम का सहायक (मित्र) है तथा वन-विहार के करने का हेतु है, किन्तु वियोगी जनों के समुदाय को भस्म करने के लिए तो धूमकेतु (अग्नि) ही है ॥१७॥
माकन्दवृन्दप्रसवाभिसर्तु: पिकस्य मोदाभ्युदयं प्रकर्तुम् । निभालनीयः कुसुमोत्सवर्तुः सखा सुखाय स्मरभूमिभर्तुः ॥१८॥
आम्र-समूह की प्रसून-मंजरी के अभिसार करने वाले कोयल के हर्ष का अभ्युदय करने के लिए, तथा कामदेव रूपी राजा के सुख को बढ़ाने के लिए पुष्पोत्सव वाली वसन्त ऋतु सखा समझना चाहिए ॥१८॥
भावार्थ - वसन्त ऋतु सभी संसारी जीवों को सुखकर प्रतीत होती है । यतोऽभ्युपात्ता नवपुष्पतातिः कन्दर्पभूपो विजयाय याति । कुहू करोतीह पिकद्विजातिः स एष संखध्वनिराविभाति ॥१९॥
नवीन पुष्पों के समूह रुप वाणों को लेकर के यह कामरूपी राजा मानों विजय करने के लिए प्रयाण कर रहा है और यह जो कोयल पक्षियों का समूह 'कुहू कुहू' शब्द कर रहा है, सो ऐसा प्रतीत होता है कि यह कामदेव के विजय-प्रस्थान-सूचक शङ्ख की ध्वनि ही सुनाई दे रही है ॥१९॥
नवप्रसङ्गे परिहृष्ट चेता नवां वधूटीमिव कामि एताम् । मुहुर्मुहुश्चुम्बति चञ्चरीको माकन्दजातामथ मञ्जरी कोः ॥२०॥
नव-प्रसङ्ग के समय हर्षित चित्त कोई कामी पुरुष जैसे अपनी नवोढा स्त्री का बार-बार चुम्बन लेता है, उसी प्रकार यह चंचरीक (भौंरा) आम्र वृक्ष पर उत्पन्न हुई मंजरी का बार-बार चुम्बन कर रहा है ॥२०॥
आम्रस्य गुञ्जत्कलिकान्तराले लीक मेतत्सह कारनाम । हग्वर्त्मकर्मक्षण एव पान्था-ङ्गिने परासुत्वभृतो वदामः ॥२१॥
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