SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 155
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ररररररररररररररररर62रररररररररररररररररर भावार्थ - कवि ने बसन्त ऋतु की तुलना अदिति नामक राक्षस से की, क्योंकि दोनों के कार्य समान दिखाई देते हैं । परागनीरोद्भरितप्रसून-शृङ्गै रनङ्ग कसखा मुखानि । मधुर्धनी नाम वनीजनीनां मरुत्क रेणोक्षतु तानि मानी ॥१३॥ कामदेव है सखा (मित्र) जिसका, और अभिमानी ऐसा यह वसन्त रूप धनी पुरुष पराग-युक्त जल से भरी हुई पुष्प रूपी पिचकारियों के द्वारा वनस्थली रूपी वनिताओं के मुखों को पवनरूप करसे सींच रहा है ॥१३॥ भावार्थ - वसन्त ऋतु में सारी वनस्थली पुष्प-पराग से व्याप्त हो जाती है । वन्या मधोः पाणिधृतिस्तदुक्तं पुंस्कोकिलैर्विप्रवरैस्तु सूक्तम् । साक्षी स्मराक्षीणहविर्भुगेष भेरीनिवेशोऽलिनिनाददेशः ॥१४॥ इस वसन्त ऋतु में वन-लक्ष्मी और वसन्तराज का पाणिग्रहण (विवाह) हो रहा है, जिसमें पुंस्कोकिल (नर कोयल) रूप विप्रवर (वि-प्रवर अर्थात् श्रेष्ठ पक्षी और विप्रवर श्रेष्ठ ब्राह्मण) के सूक्त (वचन) ही तो मंत्रोच्चारण हैं, कामदेव की प्रज्वलित अग्नि ही होमाग्नि रूप से साक्षी है और भौंरों की गुंजार ही भेरी-निनाद है, अर्थात् बाजों का शब्द है ॥१४॥ प्रत्येत्यशोकाभिधयाथ मूर्च्छन्नारक्तफुल्लाक्षितयेक्षितः सन् । दरैकधातेत्यनुमन्यमानः कुजातितां पश्यति तस्य किन्न ॥१५॥ वसन्त ऋतु में कोई पथिक पुरुष विश्राम पाने और शोक-रहित होने की इच्छा से 'अशोक' इस नाम को विश्वास करके उसके पास जाता है, किन्तु उसके लाल-लाल पुष्प रूप नेत्रों से देखा जाने पर डरकर वह मूछित हो जाता है । वह पथिक अशोक वृक्ष के पास जाते हुए यह क्यों नहीं देखता है कि यह 'कुजाति' और दरैकधाता (भयानक) है ॥१५॥ भावार्थ - कुजाति अर्थात् भूमि से उत्पन्न हुआ, दूसरे पक्ष में खोटी जाति वाला अर्थ है । इसी प्रकार दरैकधाता का अर्थ दर अर्थात् पत्रों पर अधिकार रखने वाला और दूसरे पक्ष में दर अर्थात् डर या भय को करने वाला है ।। प्रदाकुदाङ्कितचन्दनाक्तै र्याम्यैः समीरैरिव भीतिभाक्तैः । कुबेरकाष्ठ ऽऽश्रयणे प्रयत्नं दधाति पौष्प्ये समये धुरत्नम् ॥१६॥ सों के दर्प से अङ्कित चन्दन वृक्षों की सुगन्ध से युक्त उस दक्षिण मलयानिल से भयभीत हुए के समान यह सूर्य कुबेर की उत्तर दिशा को आश्रय करने के लिए वसन्त समय में प्रयत्न कर रहा है ॥१६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy