SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 154
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Terrorerrrrrrrrररररररररररररररररररर लोकत्रयोद्योति-पवित्रवित्ति-त्रयेण गर्भेऽपि स सोपपत्तिः । धनान्तराच्छन्नपयोजबन्धुरिवाबभौ स्वोचितधामसिन्धुः ॥९॥ तीनों लोकों को उद्योतित करने वाले, पवित्र, ऐसे मति, श्रुत और अवधि इन तीन ज्ञानों से युक्त वे बुद्धिमान् भगवान् गर्भ में रहते हुए इस प्रकार से सुशोभित हुए जैसे कि सघन मेघों से आवृत सूर्य अपनी समस्त किरणों से संयुक्त सुशोभित होता है ॥९॥ पयोधरोल्लास इहाविरास तथा मुखेन्दुश्च पुनीतभासः । स्थानं बभूवोत्तमपुण्यपात्र्या विचित्रमेतद् भुवि बन्धुधात्र्याः ॥१०॥ __ संसार में उत्तम पुण्य की पात्री और बन्धुजनों की धात्री (माता) ऐसी इस रानी के एक ओर तो पयोधरों (मेघों और स्तनों) का उल्लास प्रकट हुआ और दूसरी ओर मुखचन्द्र पुनीत कांतिवाला हो गया ? यह तो विचित्र बात है ॥१०॥ ___ भावार्थ -पयोधरों (मेघों) के प्रसार होने पर चन्द्रमा का प्रकाश मन्द दिखने लगता है । किन्तु रानी के पयोधरों (स्तनों) के प्रसार होने पर उसके मुख-रूपी चन्द्रमा का प्रकाश और अधिक बढ़ गया, यह आश्चर्य की बात है । कवित्ववृत्येत्युदितो न जातु विकार आसीन्जिनराजमातुः । स्याद्दीपिकायां मरुतोऽधिकारः क्वविद्युतः किन्तु तथातिचारः ॥११॥ यह ऊपर जो माता के गर्भकाल में होने वाली बातों का वर्णन किया है, वह केवल कवित्व की दृष्टि से किया गया है । वस्तुतः जिनराज की माता के शरीर में कभी किसी प्रकार का कोई विकार नहीं होता है । तेल-बत्ती वाली साधारण दीपिका के बुझाने में पवन का अधिकार है । पर क्या वह बिजली के प्रकाश को बुझाने में सामर्थ्य रखता है ? अर्थात् नहीं ॥११॥ विजृम्भते श्रीनमुचिः प्रचण्डः कुबेरदिश्यंशुरवाप्तदण्डः । कालः किलायं सुरभीतिनामाऽदितिः समन्तान्मधुविद्धधामा ॥१२॥ निश्चय से अब यह सुरभीति (सुरभि) इस नाम का काल आया, अर्थात् वसन्त का समय प्राप्त हुआ । इस समय कामदेव तो प्रचण्ड हुआ और उधर सुरों को भयभीत करने वाला अदिति नाम का राक्षस (दानव) भी प्रचण्ड हुआ । इधर सूर्य ने कुबेर दिशा (उत्तर दिशा) में दण्ड (प्रयाण) किया, अर्थात् उत्तरायण हुआ, उधर वह दण्ड को प्राप्त हुआ, अर्थात् छह मास के लिए कैद कर लिया गया, क्योंकि अब वह छह मास तक इधर दक्षिण की ओर नहीं आवेगा । तथा अदिति (पृथ्वी) चारों ओर से पुष्प-पराग द्वारा व्याप्त हो गई । दूसरे पक्ष में अदिति (देवों की माता) के स्थान को मधु राक्षस ने घेर लिया ॥१२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy