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श्रियं मुखेऽम्बा ह्रियमत्र नेत्रयोर्धृतिं स्वके कीर्तिमुरोजराजयोः ।
बुद्धिं विधाने च रमां वृषक्रमे समादधाना विबभौ गृहाश्रमे ॥४०॥ माता अपने मुख में तो श्री को, नेत्रों में ह्री को, मन में धृति को, दोनों उरोजराजों (कुचों) में कीर्ति को, कार्य सम्पादन में बुद्धि को और धर्म-कार्य में लक्ष्मी को धारण करती हुई गृहाश्रम में ही अत्यन्त शोभित हुई ॥ ४० ॥
भावार्थ माता की सेवार्थ जो श्री ह्री आदि देवियां आई थी उन्हें मानों माता ने उक्त प्रकार से आत्मसात् कर लिया, यह भाव कवि ने व्यक्त किया है ।
सुपल्लवाख्यानतया सदैवाऽनुभावयन्त्यो जननीमुदे वा । देव्योऽन्वगुस्तां मधुरांनिदानाल्लता यथा कौतुकसम्विधाना ॥ ४१ ॥
जिस प्रकार पुष्पों को धारण करने वाली और उत्तम कोमल पल्लवों से युक्त लता वसन्त की शोभा को बढ़ाती है, उसी प्रकार वे देवियां भी उत्तम पद (वचन) और आख्यानों से उस माधुर्य-मयी माता की वसन्त ऋतु के समान सर्व प्रकार से हर्ष और कौतुक को बढ़ाती हुई सेवा करती थी
४१ ।।
मातुर्मनोरथमनुप्रविधानदक्षा देव्योऽभ्युपासनसमर्थनकारिपक्षाः ।
माता च कौशलमवेत्य तदत्र तासां गर्भक्षणं निजमतीतवती मुदा सा ॥ ४२ ॥ माता की इच्छा के अनुकूल कार्य करने में दक्ष और उनकी सर्व प्रकार से उपासना करने में समर्थ पक्ष वाली वे देवियां माता की सेवा में सदा सावधान रहती थी और माता उनकी कार्य कुशलता को देख-देख कर हर्ष से अपने गर्भ के समय को बिता रही थी ||४२ ॥
श्रीमान् श्रेष्ठिचतुर्भुजः स सुषुवे भूरामले त्याह्वयं, वाणीभूषणवर्णिनं घृतवरी देवी च यं धीचयम् । तेनास्मिन् रचिते यथोक्तकथने सर्वोऽस्तिकायान्वितिः । देवीनां जिनमातृ से वनजुषां संवर्णनाय स्थिति:
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इस प्रकार श्रीमान् सेठ चतुर्भुजजी और माता घृतवरी देवी से उत्पन्न हुए, वाणी- ' -भूषण, बाल ब्रह्मचारी पं. भूरामल वर्तमान मुनि ज्ञानसागर द्वारा विरचित इस यथोक्त कथन - कारक काव्य में जिन माता की सेवा करने वाली कुमारिका देवियां का वर्णन करने वाला अस्तिकाय संख्या से युक्त यह पांचवा सर्ग समाप्त हुआ ॥५॥
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