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एवं सुविश्रान्तिमभीप्सुमेतां विज्ञाय विज्ञा रुचिवेदने ताः । विशश्रमुः साम्प्रतमत्र देव्यः मितो हि भूयादगदोऽपि सेव्यः ॥३४॥
इस प्रकार से प्रश्नोत्तरकाल में ही उन विज्ञ देवियों ने माता के विश्राम करने की इच्छुक जानकर प्रश्न पूछने से विश्राम लिया, अर्थात् उन्होंने प्रश्न पूछना बन्द कर दिया । क्योंकि औषधि परिमित ही सेव्य होती है ||३४||
अवेत्य भुक्तेः समयं विवेकात् नानामृदुव्यञ्जनपूर्णमेका ।
अमत्रमत्र प्रदधार मातुरग्रे निजं कौशलमित्यजातु ॥३५॥ पुनः भोजन का समय जानकर विवेक से किसी देवी ने नाना प्रकार के मृदु एवं मिष्ट व्यञ्जनों से परिपूर्ण थाल को माता के आगे रखा और अपने कौशल को प्रकट किया ॥ ३५ ॥
माता समास्वाद्य रसं तदीयं यावत्सुतृप्तिं समगान्मृदीयः । ताम्बूलमन्या प्रददौ प्रसत्तिप्रदं भवेद्यत्प्रकृतानुरक्ति ॥३६॥ माता ने उस सरस भोजन को खाकर ज्यों ही अत्यन्त तृप्ति का अनुभव किया, त्यों ही किसी दूसरी देवी ने प्रकृति के अनुकूल एवं प्रसन्नतावर्धक ताम्बूल लाकर दिया ॥३६॥
यदोपसान्द्रे प्रविहर्तुमम्बान्विति स्तदा तत्सुकरावलम्बात् । विनोदवार्ता मनुसम्विधात्री समं तयाऽगाच्छनकै : सुगात्री ॥३७॥
भोजन के उपरान्त भवन के समीपवर्ती उद्यान में विहार करती हुई माता को किसी देवी ने अपने हाथ का सहारा दिया और वह सुन्दर शरीर वाली माता उसके साथ विनोद-वार्ता करती हुई धीरे-धीरे इधर-उधर घूमने लगी ||३७||
चकार शय्यां शयनाय तस्याः काचित् सुपुष्पैरभितः प्रशस्याम् ।
संवाहनेऽन्या पदयोर्निलग्ना बभूव निद्रा न यतोऽस्तु भग्ना ॥३८॥
रात्रि के समय किसी देवी ने उस माता के सोने के लिए उत्तम पुष्पों के द्वारा शय्या को चारों ओर से अच्छी तरह सजाया । जब माता उस पर लेट गई तो कुछ देवियां माता के चरणों को दबाने में सलंग्न हो गई, जिससे कि माता की नींद भग्न नहीं होवे, अर्थात् माता सुख की नींद सोवें ||३८|
एकाऽन्विता वीजनमेव कर्तुं केशान् विकीर्णानपरा प्रधर्तुम् ।
बभूव चातुर्यमपूर्वमासां प्रत्येकार्ये खलु निष्प्रयासात् ॥३९॥ माता के सोते समय कोई पंखा झलने लगी, तो कोई माता के बिखरे हुए केशों को सम्हारने लगी । इस प्रकार से उन देवियों का माता की सेवा के प्रत्येक कार्य में अनायास ही अपूर्व चातुर्य प्रकट हुआ ||३९ ॥
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