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________________ 55 भावार्थ जैसे तराजू के जिस पलड़े पर भारी वस्तु रखी हो, तो वह नीचे को झुक जाता है। और हलकी वजन वाला पलड़ा ऊपर को उठ जाता है, इसी प्रकार माता की उक्त आश्वासन देने वाली वाणी को सुनकर कृतज्ञता एवं भक्ति से देवियों के मस्तक झुक गये और हस्त- युगल ऊपर मस्तक से लग गये । अर्थात् उन्होंने दोनों हाथ जोड़ कर हर्ष से गद्गद् एवं भक्ति से पूरित होकर माता को नमस्कार किया । - मातुर्मुखं चन्द्रमिवैत्य हस्तौ सङ्कोचमाप्तौ तु सरोजशस्तौ । कुमारिकाणामिति युक्तमेव विभाति भो भो जिनराज देव ॥२६॥ हे जिनराज देव ! माता के मुख को चन्द्र के समान देखकर उन कुमारिका देवियों के कमल के समान लाल वर्ण वाले उत्तम हाथ संकोच को प्राप्त हो गये, सो यह बात ठीक ही प्रतीत होती है ॥२६॥ भावार्थ कमल सूर्य के उदय में विकसित होते हैं और चन्द्र के उदय में संकुचित हो जाते हैं । देवियों के हाथ भी कमल-तुल्य थे, सो वे माता के मुख - चन्द्र को देखकर ही मानों संकुचित हो गये । प्रकृत में भाव यह है कि माता को देखते ही उन देवियों ने अपने-अपने दोनों हाथ जोड़ कर उन्हें नमस्कार किया । ललाटमिन्दूचितमेव तासां पदाब्जयोर्मातुरवाप साऽऽशा | अभूतपूर्वेत्यवलोकनाय सकौतुका वागधुनोदियाय ॥२७॥ उन देवियों का ललाट चन्द्र-तुल्य है, किन्तु वह माता के चरण कमलों को प्राप्त हो गया । किन्तु यह बात तो अभूतपूर्व ही है, मानों यही देखने के लिए उनकी कौतुक से भरी हुई वाणी अब इस प्रकार प्रकट हुई ||२७|| भावार्थ उन देवियों ने माता से प्रश्न पूछना प्रारम्भ किया । दुःखं जनोऽभ्येति कुतोऽथ पापात्, पापे कुतो धीरविवेकतापात् । कुतोऽविवेकः स च मोहशापात्, मोहक्षतिः किं जगतां दुरापा ॥ २८ ॥ हे मातः ! जीव दुःख को किस कारण से प्राप्त होता है ? उत्तर- पाप करने से ! प्रश्न पाप में बुद्धि क्यों होती है ? उत्तर अविवेक के प्रताप से । प्रश्न अविवेक क्यों उत्पन्न होता है ? उत्तर मोह के शाप से अर्थात् मोह कर्म के उदय से जीवों के अविवेक उत्पन्न होता है । और इस मोह का विनाश करना जगत्-जनों के लिए बड़ा कठिन है ॥२८॥ - - स्यात्साऽपरागस्य हृदीह शुद्धया कुतोऽपरागः परमात्मबुद्धया । इत्यस्तु बुद्धिः परमात्मनीना कुतोऽप्युपायात्सुतरामहीना ॥२९॥ Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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