________________
Vervoer 0 54 Cor
reo यथेच्छमापृच्छत भोः सुदेव्यः युष्माभिरस्ति प्रभुरेव सेव्यः ।
अहं प्रभोरेवमुपासिका वा सङ्कोचवार्धिः प्रतरेत नावा ॥२१॥
हे देवियो ! तुम लोगों को जो कुछ पूछना हो, अपनी इच्छा के अनुसार पूछो । तुम्हारे भी प्रभु ही उपास्य हैं और मैं भी प्रभु की ही उपासना करने वाली हूँ । तुम सब चर्चा रूप नाव के द्वारा सङ्कोच रूप समुद्र के पार को प्राप्त होओ ॥२१॥
न चातकीनां प्रहरेत् पिपासां पयोदमाला किमु जन्मना सा । युष्माकमाशङ्कितमुद्धरेयं तर्के रुचिं किन्न समुद्धरे यम् ॥२२॥
यदि मेघमाला चिरकाल से पिपासाकुलित चातकियों की प्यास को दूर न करे, तो उसके जन्म से क्या लाभ है ? मैं अब तुम लोगों की शंकाओं को क्यो न दूर करूं और तत्त्व के तर्क-वितर्क (ऊहा-पोह रूप विचार) में क्यों न रूचि करूं ॥२२॥
नैसर्गिका मेऽभिरुचिर्वितर्के यथाच्छता सम्भवतीह कर्के । विश्वम्भरस्याद्य सती कृपा तु सुधेव साहाय्यकरी विभातु ॥२३॥
तर्क-वितर्क में अर्थात् यथार्थ तत्त्व के चिन्तन करने में मेरी स्वाभाविक अभिरुचि है, जैसे कि दर्पण में स्वच्छता स्वभावत: होती है । फिर तो आज विश्व के पालक तीर्थङ्कर देव की कृपा है, सो वह सुधा (अमृत) के तुल्य सहायता करने वाली होवे ॥२३॥
भावार्थ - सुधा नाम चूना का भी है । जैसे दर्पण चूना की सहायता से एकदम स्वच्छ हो जाता है, उसी प्रकार भगवान् की कृपा से हमारी बुद्धि भी स्वच्छ हो रही है ।
इत्येवमाश्वासनतः सुरीणां बभूव सङ्कोचततिः सुरीणा । यथा प्रभातोदयतोऽन्धकार-सत्ता विनश्येदयि बुद्धिधार ॥२४॥
हे बुद्धि-धारक ! जैसे प्रभात के उदय से अन्धकार की सत्ता बिलकुल विनष्ट हो जाती है, उसी प्रकार माता के उक्त प्रकार से दिये गये आश्वासन द्वारा देवियों का संकोचपना बिलकुल दूर हो गया ॥२४॥
शिरो गुरुत्वान्नतिमाप भक्ति-तुलास्थितं चेत्युचितैव युक्तिः ।
करद्वयी कुड्मलकोमला सा समुच्चचालापि तदैव तासाम् ॥२५॥
उसी समय उन देवियों के भक्ति-रूपी तुला (तराजू) के एक पलड़े पर अवस्थित शिर तो भारी होने से नति (नम्रता) को प्राप्त हो गया और दूसरे पलड़े पर अवस्थित पुष्पकलिका से कोमल करयुगल हलके होने से ऊपर चले गये, सो यह युक्ति उचित ही है ॥२५॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org