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सज्ज्ञानैक विलोचन ! वक्तव्यं श्रीमता च तद्भवता । न हि किञ्चिदपि निसर्गादगोचरं ज्ञानिनां
भवति ॥ ३६ ॥
जो जिनदेव के चरणों के प्रसाद से इस भूतल पर सदा कल्याण की भाजन है और भगवान् के चरण-कमलों की भ्रमरी है, ऐसी मैंने निशा (रात्रि) के अवसान काल में ( अन्तिम प्रहर में ) शुभ चिह्न वाली सोलह स्वप्नों की परम्परा सहसा देखी है, उसे सुनिये और उसका जो शुभ या अशुभ फल है उसे हे पूज्य श्रीमान्, आप कहिये । क्योंकि हे सज्ज्ञानरूप अद्वितीय नेत्र वाले प्राणनाथ ! ज्ञानियों के लिए स्वभावत कुछ भी अज्ञात नहीं है ॥३४-३५-३६॥
पृथ्वीनाथ :
पृथुलकथनां
वाणीं
श्रुत्वा
इत्थं
प्रोक्तां प्रथितसुपृथुप्रोथया
तथ्यामविक लगिरा
हर्षणैर्मन्थराङ्ग,
तावत्प्रथयति तरां स्माथ सन्मङ्गलार्था म्
॥३७॥
विशाल नितम्ब - वाली रानी के द्वारा कही गई, विशाल अर्थ को कहने वाली, तीर्थ रूपी यथार्थ तत्त्व वाली वाणी को सुनकर हर्ष से रोमाञ्चित है अङ्ग जिसका, ऐसा वह प्रफुल्लित कमल के समान विकसित नेत्रवाला पृथ्वी का नाथ सिद्धार्थ राजा अपनी निर्दोष वाणी से उत्तम मङ्गल स्वरूप अर्थ के प्रतिपादक वचनों को इस प्रकार से कहने लगा ||३७||
त्वं
तावदीक्षितवती
शययेऽप्यनन्यां
स्वप्नावलिं
त्वनुदरि
फलितं
भो भो प्रसन्नवदने कल्याणिनीह श्रृणु मञ्जुतमं
॥३८॥
कृशोदरि, तुमने सोते समय जो अनुपम स्वप्नावली देखी है, उससे तुम अत्यन्त सौभाग्यशालिनी प्रतिभासित होती हो । हे प्रसन्न मुख, हे कल्याणशालिनि, मेरे मुख से उनका अति सुन्दर फल सुनो ॥३८॥
सुभगे
देवागमार्थ मनवद्यम्
अक लङ्कालङ्कारा गमयन्ती
फुल्लपाथोजनेत्रो, तीर्थरूपाम् 1
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प्रतिभासि
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धन्या
तथाऽस्याः ममाऽऽस्यात्
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सन्नयतः
किलाssप्तमीमांसिताख्या
वा
॥३९॥
हे सुभगे, तुम आज मुझे आप्तमीमांसा के समान प्रतीत हो रही हो । जैसे समन्तभद्र स्वामी के द्वारा की गई आप्त की मीमांसा अकलङ्कदेव - द्वारा ( रचित अष्टशती वृत्ति से) अलङ्कृत हुई है, उसी प्रकार तुम भी निर्मल आभूषणों को धारण करती हो । आप्तमीमांसा सन्नय से अर्थात् सप्तभङ्गी रूप स्याद्वादन्याय
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