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________________ स्र ररररररररररर 43Treeeeeeeeeeeeeee तावत्तु सत्तमविभूषणभूषिताङ्गी, साऽऽलीकुलेन कलिता महती नताङ्गी । पृथ्वीपतिं परमपूततनुः शुभायां, देवी प्रतस्थ इति कामितया सभायाम् ॥२९॥ तत्पश्चात् उत्तमोत्तम आभूषणों से आभूषित परम पवित्र देह की धारक, महान् विनय से नम्रीभूत प्रियकारिणी देवी ने सहेलियों के समुदाय से संयुक्त होकर स्वप्नों का फल जानने की इच्छा से शोभायमान राजसभा में पृथ्वीपति अपने प्राणनाथ की ओर प्रस्थान किया ॥२९॥ नयनाम्बुजसम्प्रसादिनीं दिनपस्येव रुचिं तमोऽदिनीम् । समुदीक्ष्य निजासनार्धके स्म स तां वेशयतीत्यथानके ॥३०॥ उस सिद्धार्थ राजा ने, नेत्र रूप कमलों को प्रसन्न करने वाली और अन्धकार को दूर करने वाली सूर्य की प्रभा के समान आती हुई रानी को देखकर पाप-रहित एवम् पुण्य-स्वरूप ऐसे अपने आसन के अर्ध भाग पर बैठाया ॥३०॥ विशदांशुसमूहाश्रितमणिमण्डलमण्डिते महाविमले । सुविशालेऽवनिललिते समुन्नते सुन्दराकारे ॥३१॥ पर्वत इव हरिपीठे प्राणेश्वरपावसङ्गाता महिषी । पशुपति-पार्श्वगताऽपि च बभौ सती पार्वतीव तदा ॥३२॥ निर्मल किरण-समूह से आश्रित मणि-मण्डल से मण्डित महान् निर्मल, सुविशाल, पृथ्वी पर सुशोभित अति उन्नत, सुन्दर आकार वाले पर्वत के समान सिंहासन पर प्राणनाथ सिद्धार्थ के पार्श्व भाग में अवस्थित वह पट्टरानी प्रियकारिणी पशुपति (महादेव) के पार्श्व-गत पार्वती सती के समान उस समय सुशोभित हुई ॥३१-३२॥ उद्योतयत्युदितदन्तविशुद्धरोचि-रंशैर्नृपस्य कलकुण्डलकल्पशोचिः । चिक्षेप चन्द्रवदना समयानुसारं - तत्कर्णयोरिति वचोऽमृतमप्युदारम् ॥३३॥ अपने दांतों की निर्मल किरणों द्वारा महाराज सिद्धार्थ के कुण्डलों की कान्ति को बढ़ाने वाली उस चन्द्रमुखी रानी ने समयानुसार अवसर प्राप्त कर राजा के दोनों कर्णों में वक्ष्यमाण प्रकार से उदार वचनामृत छोड़ा, अर्थात् स्वप्नों को कहा ॥३३॥ श्रीजिनपदप्रसादादवनौ कल्याणभागिनी च सदा । भगवच्चरणपयोजभ्रमरी या संश्रृणूत तया ॥३४॥ दृष्टा निशावसाने विशदाङ्का स्वप्नषोडशी सहसा । यापि मया प्राणेश्वर ! शुभाशुभं यत्फलं तस्याः ॥३५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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