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गतागतैर्दोलिक के लिकायां मुहुर्मुहुः प्राप्तपरिश्रमायाम् । पुनश्च नैषुण्यमुपैति तेषु योषा सुतोषा पुरुषायितेषु ॥२१॥ हिंडोले में झूलते समय गत और आगत से (बार-बार इधर से उधर या ऊपर और नीचे जाने आने से) प्राप्त हुआ है परिश्रम जिसमें ऐसी दौलिक-क्रीड़ा में अति सन्तुष्ट हुई स्त्री उन पुरुषायितों में (पुरुष के समान आचरण करने वाली रति-क्रीड़ाओं में) निपुणता को प्राप्त कर रही है ॥२१॥
भावार्थ - वर्षाकाल में प्रायः सर्वत्र स्त्रियां हिंडोलों पर झूलती हैं, उसे लक्ष्य में रखकर कवि ने उक्त उत्प्रेक्षा की है ।
मुखश्रियःस्तेयिनमैन्दवन्तु बिम्बं प्रहर्तुं समुदेति किन्तु । तत्रापि राहुं मुनयः समाहुर्दोलिन्यपैतीति जवात्सुबाहुः ॥२२॥
झूला पर झूलती हुई स्त्री अपनी मुखश्री के चुराने वाले चन्द्र बिम्ब को प्रहार करने के लिए ही मानों ऊपर की ओर जाती हैं, किन्तु वहां भी (चन्द्र के पास) राहु रहता है ऐसा मुनि जन कहते हैं, सो वह कहीं हमारे मुखचन्द्र को ग्रस न लेवे, इस विचार के आते ही वेग से वह उत्तम भुजा वाली स्त्री शीघ्र लौट आती है ॥२२॥
प्रौढिं गतानामपि वाहिनीनां सम्पर्क मासाद्य मुहुर्बहूनाम् । वृद्धो वराको जड़घी रयेण जातोऽधुना विभ्रमसंयुतानाम् ॥२३॥
प्रौढ़ अवस्था को प्राप्त हुई और विभ्रम-विलास से संयुक्त ऐसी बहुत-सी नदियों का संगम पाकर यह दीन, जड़-बुद्धि समुद्र शीघ्रता से अब वृद्ध हो रहा है ॥२३॥
भावार्थ - जैसे कोई मूर्ख युवा पुरुष अनेक युवती स्त्रियों के साथ समागम करे, तो जल्दी बूढ़ा हो जाता है, उसी प्रकार यह जलधि (समुद्र) भी वर्षा के जल से उमड़ती हुई नदियों का संगम पाकर जल्दी से वृद्ध हो रहा है अर्थात् बढ़ रहा है ।।
रसं रसित्वा भ्रमतो वसित्वाऽपयजल्पतोऽप्युद्धततां कशित्वा ।
परजपुञ्जोद्गतिमण्डितास्यमेतत्समापश्य सखेऽधुनाऽस्य ॥२४॥
हे मित्र, रस (मदिरा, जल) पीकर विभ्रम (नशा) के वश होकर झूमते हुए और उद्धतपना अंगीकार करके यद्वा-तद्वा बड़बड़ाने वाले ऐसे इस समुद्र के परञ्ज-(फेन) पुञ्ज के निकलने से मंडित मुख को तो देखो ॥२४॥
भावार्थ - जैसे कोई मनुष्य मदिरा को पीकर नशे से झूमने लगता है, उद्धत हो जाता है, यद्वातद्वा बकने लगता है और मुख से झाग निकलने लगते हैं, वैसे ही यह समुद्र भी सहस्रों नदियों के रस (जल) को पीकर मदिरोन्मत्त पुरुष के समान सर्व चेष्टाएं कर रहा है ।
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