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वृथा श्रयन्तः कुकविप्रयातं पङ्कप्लुता कं कलयन्त्युदात्तम् । भेकाः किलैकाकितया लपन्तस्तुदन्ति नित्यं महतामुतान्तः ॥१७॥
वृथा ही कुकवि की चेष्टा का आश्रय लेते हुए कीचड़ से व्याप्त (लथ-पथ ) हुए ये मेंढक अल्प जल को स्वीकार करते हैं और अकेले होने के कारण टर्र-टर्र शब्द करते हुए नित्य ही महापुरुषों के मन को कचोटते रहते हैं ||१७||
भावार्थ वर्षाकाल में मेंढक, अपने को सब कुछ समझने वाले कुकवियों के समान व्यर्थ ही टर्र-टर्र का राग आलापते रहते हैं ।
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चित्तेशयः कौ जयतादयन्तु हृष्टास्ततः श्रीकुटजाः श्रयन्तु । सुमस्थवार्बिन्दुदलापदेशं मुक्तामयन्ते ऽप्युपहारलेशम् ॥१८॥
'इस वर्षा ऋतु में यह कामदेव पृथ्वी पर विजय प्राप्त करे' यह कहते हुए ही मानों हर्षित कुटज वृक्ष अपने फूलों पर आकर गिरि हुई जल-बिन्दुओं के बहाने से मोतियों का उपहार प्राप्त कर रहे हैं ||१८||
कीद्दक् चरित्रं चरितं त्वनेन पश्यांशकिन्दारुणमाशुगेन ।
चिरात्पतच्चातक चञ् चुमूले निवारितं वारि तदत्र तूले ॥ १९॥
हे अंशकिन् (विचारशील मित्र ) ! देखो इस वर्षाकालीन आशुग (पवन) ने कैसा भयानक चरित्र आचरित किया है कि चिरकाल के पश्चात् आकर चातक पक्षी की खुली हुई चोंच में गिरने वाली वर्षा की जल-बिन्दु को इसने निवारण कर दिया है, अर्थात् रोक दिया है ॥१९॥
भावार्थ वेग से पवन के चलने के कारण चातक की चोंच में गिरने वाली बूंद वहां न गिर कर उड़ के इधर-उधर गिर जाती है ।
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॥२०॥
वर्षा ऋतु में रात्रि में चमकते हुए उड़ने वाले खद्योतों (जुगनू या पटवीजनों) को लक्ष्य में रख कर कवि उत्प्रेक्षा करते हुए कहते हैं कि घनों से (मेघों और हथौड़ों से ) पराभूत (ताड़ित) हो करके ही मानों लघु तथा विचित्र आकार को प्राप्त हुआ, समान अर्थ वृत्ति वाला उडु वर्ग (नक्षत्र समूह) खद्योत नाम से प्रसिद्ध होकर भूतल पर इधर-उधर उड़ता हुआ चमक रहा है ॥२०॥
घनैः पराभूत इवोडुवर्ग : लघुत्वमासाद्य विचित्रसर्गः तुल्यार्थवृत्तिः प्रथितो धराङ्के खद्योतनाम्ना चरतीति शङ्के
भावार्थ - ख+द्योत अर्थात् आकाश में चमकने के कारण खद्योत यह अर्थ नक्षत्र और जुगनू (पटवीजना) इन दोनों में समान रूप से रहता है इसी कारण कवि ने उक्त कल्पना की है ।
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