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________________ अस्या महिष्या उदरे ऽवतार-मस्माकमानन्दगिरोपहारः । शुक्तेरिवारात्कुवलप्रकारः वीरः कदाचित्स्वयमाबभार ॥१॥ हमारे आनन्द रूप वाणी के उपहार स्वरूप वीर भगवान् ने सीप में मोती के समान इस प्रियकारिणी पट्टरानी के उदर में (गर्भ में) कदाचित् स्वयं ही अवतार को धारण किया ॥१॥ वीरस्य गर्भे ऽभिगमप्रकार आषाढ मासः शुचिपक्षसारः । तिथिश्च सम्बन्धवशेन षष्ठी ऋतुः समारब्धपुनीतवृष्टिः ॥२॥ जब वीर भगवान् का गर्भ में अवतार हुआ, तब आषाढ़ मास था, शुक्ल पक्ष था, सम्बन्ध के वश तिथि षष्ठी थी और वर्षा ऋतु थी जिसने कि पवित्र वृष्टि को आरम्भ ही किया था ॥२॥ धरा प्रभोर्गर्भमुपेयुषस्तु बभूव सोल्लासविचारवस्तु । सन्तापमुज्झित्य गताऽऽर्द्रभावं रोमाञ्चनैरङ्करिता प्रजावत् ॥३॥ वीर प्रभु के गर्भ को प्राप्त होने पर यह पृथ्वी हर्ष से उल्लसित विचार वाली हो गई और ग्रीष्मकाल-जनित सन्ताप को छोड़कर आर्द्रता को प्राप्त हुई । तथा इस ऋतु में पृथ्वी रोमाञ्चों से प्रजा के समान अंकुरित हो गई ॥३॥ भावार्थ - वीर भगवान् के गर्भ में आने पर वर्षा से तो पृथ्वी हरी भरी हुई और प्रजा हर्ष से विभोर हो गई । नानौषधिस्फूर्तिधरः प्रशस्य-वृत्तिर्जगत्तप्तमवेत्य तस्य । रसायनाधीश्वर एष कालः प्रवर्तयन् कौशलमित्युदारः ॥४॥ नाना प्रकार की औषधियों को स्फूर्ति देने वाला अर्थात् उत्पन्न करने वाला, प्रशंसनीय प्रवृत्ति वाला और उत्तम धान्यों को उत्पन्न करने वाला अतएव उदार, रस (जल) के आगमन का स्वामी यह रसायनाधीश्वर वर्षाकाल अपने कौशल (चातुर्य) को प्रवर्तन करता हुआ, साथ ही कौ अर्थात् पृथ्वी पर शर (जल) को बरसाता हुआ, तथा सर-काण्डों को उत्पन्न करता हुआ आया ।।४।। वसन्तसम्राड्-विरहादपर्तुं दिशावयस्याभिरिवोपकर्तुम् । महीमहीनानि घनापदेशाद् धृतानि नीलाब्जदलान्यशेषात् ॥५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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