________________
35
नरपो वृषभावमाप्तवान् महिषीयं पुनरे तकस्य वा 1 अनयोरविकारिणी क्रिया समभूत्सा द्यु सदामहो प्रिया ॥३६॥
यह सिद्धार्थ राजा वृषभाव ( बैलपने ) को प्राप्त हुआ और इसकी यह रानी महिषी (भैंस) हुई। पर यह तो विरुद्ध है कि बैल की स्त्री भैंस हो । अतः परिहार यह है कि राजा तो परम धार्मिक था और प्रिय कारिणी उसकी पट्टरानी बनी । इन दोनों राजा-रानी की क्रिया अवि ( भेड़) को उत्पन्न करने वाली हो, यह कैसे संभव है ? इसका परिहार यह है कि उनकी मनोविनोद आदि सभी क्रियाएं विकार रहित थी । यह रानी मानुषी होकर के भी देवों की प्रिया (स्त्री) थी । पर यह कैसे संभव है ? इसका परिहार यह है कि वह अपने गुणों द्वारा देवों को अत्यन्त प्यारी थी ॥३६॥
स्फुटमार्त्तवसम्विधानतः स निशा वासरयोस्तयोः स्वतः ।
इतरे तर मानुकू ल्यतः
रात्रि और दिन में ऋतुओं के वह समय परस्पर अनुकूलता को लिए अपनी सफलता के साथ बीत रहा था ||३७|
-
भावार्थ राजा को वासर (दिन) की और रानी को निशा (रात्रि) की उपमा देकर कवि ने
यह प्रकट किया है कि उन दोनों का समय परस्पर में एक दूसरे के अनुकूल आचरण करने से परम आनन्द के साथ व्यतीत हो रहा था ।
श्रीमान् श्रेष्ठिचतुर्भुजः स वाणीभूषणवर्णिनं घृतवरी देवी
विरचिते
श्रीवीराभ्युदयेऽमुना श्रीसिद्धार्थ - तदङ्गनाविवरणः
॥३॥
इस प्रकार श्रीमान् सेठ चतुर्भुजजी और घृतवरी देवी से उत्पन्न हुए, वाणीभूषण बाल- ब्रह्मचारी पं. भूरामल वर्तमान मुनि ज्ञान सागर द्वारा विरचित इस वीरोदय काव्य में सिद्धार्थ राजा और उसकी प्रियकारिणी रानी का वर्णन करने वाला तीसरा सर्ग समाप्त हुआ ॥३॥
समगच्छ त्समयः स्वमूल्यतः ॥३७॥ अनुसार आचरण रूप विधि विधान करने से उस राजा-रानी का
Jain Education International
भूरामलेत्याह्वयं, च यं धीचयम् । काव्ये ऽधुना नामतः,
सर्ग स्तृतीयस्ततः
सुषुवे
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org