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अक्ष्णोः साञ्जनतामवाप दधती या दीर्घसन्दर्शिता मुर्वोराप्य विलोमतां च युवतिर्लेभे सुवृत्तस्थितिम् । काठिन्यं कुचयोः समुन्नतिमथो सम्भावयन्ती बभौ श्लक्ष्णत्वं कचसंग्रहे समुदितं
वक्र त्वमप्यात्मनः
॥३२॥
वह रानी अपने नेत्रों में अञ्जन- युक्तता और साथ ही दीर्घ सन्दर्शिता ( दूर - दर्शिता ) को भी धारण करती थी। वह अपनी जंघाओं में विलोमता ( रोम-रहितता और प्रतिकूलता) को - और साथ ही सुवृत्त की स्थिति को धारण करती थी । अर्थात् जंघा में गोलाई को और उत्तम चारित्र को धारण करती थी। अपने दोनों कुचों में काठिन्य और समुन्नति को धारण करती हुई शोभती थी । तथा केशपाश में सचिक्वणता को और वक्रता को भी धारण करती थी ॥३२॥
भावार्थ एक वस्तु में परस्पर-विरोधी दो धर्मों का रहना कठिन है, परन्तु वह रानी अपने नेत्रों, जंघाओं, कुचों और केशों में परस्पर विरोधी दो-दो धर्मों को धारण करती थी । अयि जिनपगिरेवाऽऽसीत्समस्तैकबन्धुः, शशधर- सुषुमेवाऽऽह्लाद - सन्दोहसिन्धुः । सरससकलचेष्टा सानुकूला नदीव, नरपतिपदपद्मप्रेक्षिणी षट्पदीव ॥३३॥
हे मित्र, वह रानी जिनदेव की वाणी के समान समस्त जीवलोक की एक मात्र बन्धु थी, चन्द्रमा की सुषमा के समान सब के आह्लाद पुञ्ज रूप सिन्धु को बढ़ाने वाली थी, उभय-तटानुगामिनी नदी के समान सर्व सरस चेष्टा वाली और पति के अनुकूल आचरण करने वाली थी, तथा भ्रमरी के समान अपने प्रियतम सिद्धार्थ राजा के चरण-कमलों का निरन्तर अवलोकन करने वाली थीं ॥३३॥
रतिरिव च पुष्पधनुषः प्रियाऽभवत्साशिका सती जनुषः । विभूतिमतः भूमावपराजिता
ईशस्य
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गुणतः ॥३४॥
वह रानी कामदेव को रति के समान, जन-जीवन को शुभाशीर्वाद के समान, विभूतिमान् महेश को अपराजिता (पार्वती) के समान भूमण्डल पर अपने गुणों से पति को अत्यन्त प्यारी थी ||२४||
असुमाह पतिं स्थितिः पुनः समवायाय सुरीतिवस्तुनः । स मतां ममतामुदाहरदजडः किन्तु समर्थकन्धरः ॥३५॥
वह रानी पति को अपने प्राण समझती थी और निरन्तर सुद्दढ़ प्रेम बनाये रखने के लिए उत्तम रीति ( रिवाजों) की स्थिति स्वीकार करती थी । तथा राजा उसे स्वयं अपनी ममता रूप मानता था, क्योंकि वह स्वयं अजड़ अर्थात् मूर्ख नहीं, अपितु विद्वान् था, साथ ही समर्थ कन्धर था, अर्थात् बाहुबाल को धारण करता था । विरोध में जड़- रहित होकर के भी पूर्ण जल वाला था ॥३५॥ दोनों ही राजा-रानी परस्पर अत्यन्त अनुराग रखते थे ।
भावार्थ
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