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rerrereरररररररररररररररर वसन्त रूप सम्राट के वियोग हो जाने से निष्प्रभ हुई मही (पृथ्वी) का उपकार करने के लिए ही मानों दिशा रूपी सहेलियों ने मेधों के व्याज से चारों ओर विशाल नील कमल-दलों को फैला दिया है ॥५॥
वृद्धिर्जडानां मलिनैर्घनैर्वा लब्धोन्नतिस्त्यक्तपथो जनस्तु । द्विरे फसंघः प्रतिदेशमेवं कलिर्नु वर्षावसरोऽयमस्तु ॥६॥
यह वर्षाकाल तो मुझे कलिकाल-सा प्रतीत होता है, क्योंकि इस वर्षा ऋतु में जड़ों अर्थात् जलों की वृद्धि होती है, और कलिकाल में जड़ (मूर्ख) जनों की वृद्धि होती है । वर्षा ऋतु में तो काले बादल उन्नति करते हैं और कलिकाल में पापी लोग प्रचुरता से उत्पन्न होते हैं । वर्षा काल में तो सर्वत्र जलमय पृथ्वी के हो जाने से लोग मार्गों पर आना-जाना छोड़ देते हैं और कलिकाल में लोग धर्ममार्ग को छोड़ देते हैं । वर्षा काल में प्रति-देश अर्थात् ठौर-ठौर पर सर्वत्र द्विरेफ (सर्प) समूह प्रकट होता है और कलिकाल में पिशुन (चुगलखोर) जनों का समूह बढ़ जाता है ॥६॥
मित्रस्य दुःसाध्यमवेक्षणन्तूद्योगाश्च यूनां विलयं वजन्तु । व्यर्थं तथा जीवनमप्युपात्तं दुर्दैवतां दुर्दिनभित्यगात्तत् ॥७॥
वर्षाकाल के दुर्दिन (मेघाच्छन्न दिन) मुझे दुर्दैव से प्रतीत होते हैं, क्योंकि वर्षाकाल में मित्र अर्थात् सूर्य का दर्शन दुःसाध्य हो जाता है और दुर्दैव के समय मित्रों का दर्शन नहीं होता । वर्षा में युवक जनों के भी उद्योग व्यापार विलय को प्राप्त हो जाते हैं और दुर्भाग्य के समय नवयुवकों के भी पुरुषार्थ विनिष्ट हो जाते हैं । वर्षाकाल में बरसने वाला जीवन (जल) व्यर्थ जाता है और दुर्दैव के समय उससे पीड़ित जनों का जीवन व्यर्थ जाता है ॥७॥
लोकोऽयमाप्नोति जडाशयत्वं सद्वर्त्म लुप्तं घनमेचकेन । वक्तार आरादथवा प्लवङ्गा मौन्यन्यपुष्ट : स्वयमित्यनेन ॥८॥
वर्षाकाल में यह सारा लोक (संसार) जलाशय (सरोवर) रूपता को प्राप्त हो जाता है, अर्थात् जिधर देखो, उधर पानी ही पानी भरा हुआ दिखाई देता है और कलिकाल में लोग जड़ाशय (मूर्ख) हो जाते हैं । वर्षाकाल में आकाश घन-मेचक से अर्थात् सघन मेघों के अन्धकार से व्याप्त हो जाता है और कलिकाल में घोर पाप के द्वारा सन्मार्ग लुप्त हो जाता है । वर्षा काल में मेंढ़क वक्ता हो जाते हैं, अर्थात् सर्वत्र टर्र-टर्र करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं, और कलिकाल में उछल कूद मचाने वाले मनुष्य ही वक्ता बन जाते हैं । वर्षा ऋतु में कोयल मौन धारण कर लेती है और कलिकाल में परोपकारी जीव मौन धारण करते हैं । इस प्रकार मुझे वर्षा काल और कलिकाल दोनों ही एक-सद्दश प्रतीत होते हैं ॥८॥
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