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इस श्लोक से कवि ने यह भाव प्रकट किया है कि अपने इष्ट अनिष्ट का विधाता यह जीव स्वयं ही है ।
मेरोर्यदौद्धत्यमिता नितम्बे फुल्लत्वमब्जादथवाऽऽस्यबिम्बे । गाम्भीर्यमब्धेरुत नाभिकायां श्रोणौ विशालत्वमथो धराया ॥२२॥
उस रानी ने अपने नितम्ब भाग में सुमेरु की उद्धतता को, मुख-बिम्ब में कमल की प्रफुल्लता को, नाभि में समुद्र की गम्भीरता को और श्रोणिभाग (नाभि से अधोभाग) में पृथ्वी की विशालता को धारण किया था ॥२२॥
चाञ्चल्यमक्ष्णोरनुमन्यमाना दोषाकरत्वं च मुखे दधाना । प्रबालभावं करयोर्जगाद बभूव यस्या उदरे ऽपवादः ॥२३॥ वह रानी अपनी दोनों आंखों में चञ्चलता का अनुमान कराती थी, और मुख दोषाकरत्व को धारण करती थी । दोनों हाथों में प्रबाल भाव को कहती थी और उसके उदर में अपवाद था ||२३| भावार्थ चञ्चलता यद्यपि दोष है, किन्तु रानी की आंखों को प्राप्त होकर वह गुण बन गया था, क्योंकि स्त्रियों के आंखों की चञ्चलता उत्तम मानी जाती है। दोषाकरत्व अर्थात् दोषों की खानि होना दोष है, किन्तु रानी के मुख में दोषाकरत्व अर्थात् चन्द्रत्व था, उसका मुख चन्द्रमा के समान था
प्रबालभाव, अर्थात् बालकपन (लड़कपन ) यह दोष है, किन्तु रानी के हाथों के प्रबाल भाव (मूंगा के समान लालिमा) होने से वह गुण हो गया था । अपवाद ( निन्दा) होना यह दोष है, किन्तु रानी के पेट में कृशता या क्षीणता रूप अपवाद गुण बन गया था ।
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महीपतेर्धानि निजेङ्गितेन सुरीति-सम्पत्तिकरी हि तेन । कटिप्रदेशेन हृदापि मित्राऽसकौ धरायां समभूत्पवित्रा ॥ २४ ॥
हे मित्र ! वह रानी सिद्धार्थ राजा के घर में अपनी चेष्टा से सुरीति और सम्पत्ति की करने वाली थी । कटिप्रदेश में संकुचित (कृश) हो करके भी हृदय से विशाल थी, इस प्रकार वह धरातल पर पवित्र थी ||२४|
भावार्थ इस श्लोक में सुरीति पद द्वयर्थक है, तदनुसार वह रानी अपनी चेष्टा से सुरी (देवियों) को भी मात करने वाली थी । और उत्तम रीति से चलने के कारण प्रजा में उत्तम रीति-रिवाजों को चलाने वाली थी । तथा पवित्र पद में भी श्लेष है। रानी का कटि प्रदेश तो कृश था, किन्तु उसके नीचे का नितम्ब भाग और ऊपर का वक्षःस्थल विस्तीर्ण था, अतएव वह पवित्र अर्थात् पवि (वज्र ) के त्र-तुल्य आकार को धारण करता था । फिर भी उसका हृदय पवित्र ( निर्मल ) था ।
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