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रररररररर पररररररररररर
वह रानी वाणी (सरस्वती) के समान परमार्थ की देने वाली है । सरस्वती मुमुक्षु को परमार्थ (मोक्ष) देने वाली है और यह याचकजनों को परम अर्थ (धन) को देने वाली है, चन्द्रमा की कला के समान आनन्द-विधिका विधान करने वाली है, अर्थात् परम आनन्द दायिनी है । वितर्कणा बुद्धि के समान परम ऊहापोह (तर्क-वितर्क) करने वाली है और यह अपने पति के परम स्नेह अनुराग की पात्री (अधिष्ठानवाली) है । तथा पुष्पमाला के समान सत्कौतुकों अर्थात् उत्तम पुष्पों से और यह मनो-विनोदों से परिपूर्ण शरीर वाली है ॥१८॥
लतेव सम्पल्लवभावभुक्ता दशेव दीपस्य विकासयुक्ता ।
सत्तेव नित्यं समवाद-सूक्ता द्राक्षेव याऽऽसीन्मृदुता-प्रयुक्ता ॥१९॥ __यह रानी लता के समान सम्पल्लव भाव वाली है । जैसे लता उत्तम पल्लवों (पत्तों) से युक्त होती है, उसी प्रकार यह रानी भी सम्पत्ति से (सर्व प्रकार की समृद्धि भाव से) युक्त है एवं मंजुभाषिणी है । तथा यह रानी दीपक की दशा के समान विकास (प्रकाश) से युक्त है । सत्ता (नैयायिकों के द्वारा माने गये. पदार्थ विशेष) के समान यह रानी नित्य ही सामान्य धर्म से युक्त है, अर्थात् सदा ही समदर्शिनी रहती है । तथा यह रानी द्राक्षा के समान मृदुता (कोमलता) से संयुक्त है, अर्थात् परम कोमलाङ्गी है ॥१९॥
इतः प्रभृत्यम्ब तवाननस्य न स्पर्धयिष्ये सुषुमाममुष्य । इतीव पादाग्रमितोऽथ यस्या युक्तः सुधांशुः स्वकुलेन स स्यात् ॥२०॥
हे अम्बे ! अब आज से आगे मैं कभी भी तुम्हारे इस मुख की सुषमा (सौन्दर्य) के साथ स्पर्धा नहीं करूंगा, ऐसी प्रतिज्ञा करके ही मानों वह चन्द्रमा अपने तारागण रूप कुल के साथ आकर रानी के पादान (चरण-नखों) को प्राप्त हो गया है ॥२०॥
भावार्थ - रानी के चरणों की अंगुलियों के नखों की कांति चन्द्र, तारादिक के समान प्रकाशमान थी, जिसे लक्ष्य करके कवि ने उक्त उत्प्रेक्षा की है ।
दण्डाकृतिं लोमलतास्वथाऽरं कुलालसत्त्वं स्वयमुज्जहार । कुम्भोपमत्वं कुचयोर्दधाना नितम्बदेशे पृथुचक्र मानात् ॥२१॥
यह रानी अपनी लोम-लताओं (रोम-राजिओं) में तो दण्ड की आकृति को धारण करती थी और स्वयं कुलाल (कुम्भकार) के सत्त्व को उद्धृत करती थी अर्थात् कुल (वंश) के अलसत्व (आलसीपन) को दूर करती थी । अथवा पृथ्वी पर सर्व जनता से अपना प्रेम प्रकट करती थी । रानी अपने दोनों कुचों में कुम्भ की उपमा को धारण करती थी एवम् उसके विशाल नितम्ब प्रदेश में स्वयं ही विस्तीर्ण चक्र (बर्तन बनाने के कुम्हार के चाक) का अनुमान होता था ॥२१॥
भावार्थ - उस रानी ने अपने नितम्ब-मण्डल को चाक मान कर और उदर में होने वाली रोमावली को दण्ड मानकर स्वयं को कुम्भकार माना और अपने दोनों स्तन-रूप कलशों का निर्माण किया ।
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