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भावार्थ राजा ने यद्यपि एक राज-विद्या ही गुरु- मुख से अपने दोनों कानों द्वारा सुनी थी, किन्तु इसकी प्रतिभा से वह चौदह विद्या रूप से परिणत हो गई । इसी प्रकार इस राजा की एक शक्ति भी नीतिचतुष्क (आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता और दण्डनीति) को प्राप्त होकर नवता अर्थात् नव-संख्या को प्राप्त हुई, यह परम आश्चर्य की बात है ? इसका परिहार यह है कि उसकी शक्ति भी नित्य नवीनता को प्राप्त हो रही थी ।
छायेव सूर्यस्य सदाऽनुगन्त्री बभूव मायवे विधेः सुमन्त्रिन् । नृपस्य नाम्ना प्रियकारिणीति यस्याः पुनीता प्रणयप्रणीति ॥ १५ ॥ हे सुमन्त्रिन् (मित्र) ! इस सिद्धार्थ राजा की प्रियकारिणी इस नाम से प्रसिद्ध रानी थी, जो कि सूर्य की छाया के समान एवं विधि (ब्रह्मा) की माया के समान पति का सदा अनुगमन करती थी और जिसका प्रणय-प्रणयन अर्थात् प्रेम-प्रदर्शन पवित्र था । अतएव यह अपने प्रिय-कारिणी इस नाम को सार्थक करती थी ॥१५॥
दयेव धर्मस्य महानुभावा क्षान्तिस्तथाऽभूत्तपसः सदा वा । पुण्यस्य कल्याणपरम्परे वाऽसौ तत्पदाधीनसमर्थ सेवा
॥१६॥
महानुभाव (उदार हृदय) वाली यह रानी धर्म की दया के समान, तप की क्षमा के समान तथा पुण्य की कल्याणकारिणी परम्परा के समान थी और सदा ही उस राजा के पदाधीन (चरणों के आश्रित ) रहकर उनकी समर्थ ( तन, मन, वचन के एकाग्र होकर ) सेवा करने वाली थी ॥१६॥
हरे: प्रिया सा चपलस्वभावा मृडस्य निर्लज्जतयाऽघदा वा । रतिस्त्वद्दश्या कथमस्तु पश्य तस्याः समा शीलभुवोऽत्र शस्य ॥१७॥
हे प्रशंसनीय मित्र, बताओ इस संसार में परम शील वाली उस रानी के लिए किस की उपमा दी जाय ? क्योंकि यदि उसे हरि (विष्णु) की प्रिया लक्ष्मी की उपमा देते हैं, तो वह चपल स्वभाव वाली है, पर यह तो परम शान्त है, अतः लक्ष्मी की उपमा देना ठीक नहीं है । यदि कहो कि उसे शिवजी की स्त्री पार्वती की उपमा दी जाय, तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि वह तो शिवजी के अर्धाङ्ग में निर्लज्ज होकर सदा चिपटी रहती है, अतः अरुचिकारिणी है। किन्तु यह रानी तो सदा सलज्ज होने से प्रियकारिणी है । यदि कहो कि काम की स्त्री रति की उपमा दी जाय, सो वह तो अदृश्य रहती है- आंखों से दिखाई ही नहीं देती है- फिर उसकी उपमा देना कैसे उचित होगा ? अर्थात् मुझे तो यह रानी संसार में उपमा से रहित होने के कारण अनुपम ही प्रतीत होती है ॥१७॥
वाणीव याऽऽसीत्परमार्थदात्री कलेव चानन्दविधा विधात्री । वितर्कणावत्पर मोहपात्री मालेव सत्कौतुक पूर्ण गात्री
॥१८॥
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