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2 8रररररररररररररर _हे तात ! (जनक समुद्र !) तुम्हारी यह तनुजा (आत्मजा पुत्री लक्ष्मी) आजानुबाहु (घुटनों तक लम्बी भुजाओं वाले) इस राजा के शरीर को सभाओं के बीच में भी (आलिंगन करने से) नहीं छोड़ती है, अर्थात् इतनी अधिक निर्लज्ज है, यह शिकायत करने के लिए ही मानों इस राजा की कीर्ति रूपी दूसरी स्त्री समुद्रान्त को प्राप्त हुई ॥११॥
भावार्थ - अपनी सौत लक्ष्मी की उक्त निर्लजता को देख कर ही उसे कहने के लिए राजा की कीर्ति रूपी दूसरी पत्नी समुद्र के अन्त तक गई, अर्थात् इसकी कीर्ति समुद्र-पर्यन्त सर्व ओर फैली हुई थी।
आकर्ण्य भूपालयशःप्रशस्तिं शिरो धुनेच्चेत्कथमेवमस्ति । स्थिति(वोऽपीत्यनुमानजातात्कौँ चकाराहिपतेन धाता ॥१२॥
इस सिद्धार्थ भूपाल के निर्मल यशोगाथा को सुनकर अहिपति (सर्पराज शेषनाग) कदाचित् अपना शिर धुने, तो पृथ्वी की स्थिति कैसे रहेगी ? अर्थात् पृथ्वी पर सभी कुछ उलट-पुलट हो जायगा, ऐसा (भविष्य कालीन) अनुमान हो जाने से ही मानों विधाता ने नागराज के कानों को नहीं बनाया ॥१२।
भावार्थ - ऐसी लोक-प्रसिद्धि है कि यह पृथ्वी शेषनाग के शिर पर अवस्थित है । उसे ध्यान में रख कर के ही कवि ने सर्यों के कान न होने की उत्प्रेक्षा की है ।
विभूतिमत्त्वं दधताऽप्यनेन महेश्वरत्वं जननायकेन ।
कुतोऽपि वैषम्यमितं न दृष्टे: समुन्नतत्वं व्रजताऽथ सृष्टेः ॥१३॥
विभूतिमत्ता और महेश्वरता को धारण करने वाले इस राजा ने चतुर्वर्ण वाली सृष्टि की रचना रूप समुन्नति को करते हुए भी दृष्टि की विषमता और संहारकता को नहीं धारण किया था ॥१३॥
भावार्थ - महेश्वर (महादेव) की विभूतिमत्ता अर्थात् शरीर में भस्म लगाना और दृष्टि-विषमता (तीन नेत्र का होना) ये दो बातें संसार में प्रसिद्ध है । सो इस राजा में भी विभूतिमत्ता (वैभवशालिता) और महान् ऐश्वर्यपना तो था, किन्तु नेत्रों की विषमता नहीं थी । महादेव की संसार-सहारकता भी प्रसिद्ध है और ब्रह्मा की सृष्टि रचना भी प्रसिद्ध है । यह सिद्धार्थ राजा अपनी प्रजा रूप सृष्टि का ब्रह्मा के
रचयिता (व्यवस्थापक) तो था. पर महादेव के समान उसका संहारक नहीं था । कहने का सार यह कि इस सिद्धार्थ राजा में ब्रह्मा के गुणों के साथ महेश्वर के गुण तो थे, पर सृष्टि-संहारक रूप अवगुण नहीं था ।
एकाऽस्य विद्या श्रवसोश्च तत्त्वं सम्प्राप्य लेभेऽथ चतुर्दशत्वम् ।
शक्तिस्तथा नीतिचतुष्क सारमुपागताऽहो नवतां बभार ॥१४॥
इस सिद्धार्थ राजा की एक विद्या दोनों श्रवणों के तत्त्व को प्राप्त होकर अर्थात् कर्णगोचर होकर चतुर्दशत्व को प्राप्त हुई । तथा एक शक्ति भी नीति-चतुष्क के सारपने को प्राप्त होकर नवपने को धारण करती थी ॥१४॥
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