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________________ Taranानान्त वन हे मित्रराज. इस राज-राजेश्वर सिद्धार्थ की चापविद्या (धनर्वेदिता) की लोकोत्तरता तो देखो- कि वह बाण-पुञ्ज तो समीप है और गुण (डोरी) दिगन्तगामी है, यह तो विचित्र बात है ॥८॥ ____ भावार्थ - धनुर्धारी जब धनुष लेकर बाण चलाता है, तब डोरी तो उसके पास ही रहती है और बाण दूर लक्ष्य स्थान पर चला जाता है । किन्तु सिद्धार्थ राजा की विद्या ने यह लोकोत्तरपना प्राप्त किया कि याचक जन तो उसके समीप आते थे और उसके यश आदि गुण दिगन्तगामी हो गये, अर्थात् वे सर्व दिशाओं में फैल गये । त्रिवर्गभावात्प्रतिपत्तिसारः स्वयं चतुर्वर्णविधिं चकार । जनोऽपवर्गस्थितये भवेऽदः स नाऽनभिज्ञत्वममुष्य वेद ॥९॥ यह राजा त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थ) में निष्णात था, इसलिए प्रजा में चतुर्वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण) की व्यवस्था स्वयं करता था । अतएव अपवर्ग (मोक्ष नामक चतुर्थ पुरुषार्थ) की प्राप्ति के लिए भी यह अनभिज्ञ नहीं, अपितु अभिज्ञ (जानकार) है, ऐसा उस समय का प्रत्येक जन स्वीकार करता था । इस श्लोक का एक दूसरा भी अर्थ है - यह राजा कवर्गादि पांच वर्गों में से आदि के तीन वर्ग १कवर्ग, रचवर्ग और ३टवर्ग पढ़ चुकने पर उसके आगे के तवर्गीय त, थ, द, ध इन चार वर्णों को याद करने में लगा हुआ था, अतः ४पवर्ग को जानने के पहिले 'न' कार का जानना आवश्यक है, ऐसा लोग कहते थे ॥९॥ भुजङ्गतोऽमुष्य न मन्त्रिणोऽपि असेः कदाचिद्यदि सोऽस्तु कोपी । त्रातुं क्षमा इत्यरयोऽनुयान्ति तदंघिचञ्चन्नखचन्द्रकान्तम् ॥१०॥ यदि कदाचित् (किसी अपराधी के ऊपर) यह राजा कुपित हो गया, तो उसके भुजङ्ग (खङ्ग) से रक्षा करने के लिए मंत्रीगण भी समर्थ नहीं थे, ऐसा मानकर अरिगण स्वयं आकर के इस राजा के चरणों की चमकती हुई नख-चन्द्रकान्त का आश्रय लेते थे ॥१०॥ भावार्थ - इस श्लोक में प्रयुक्त भुजङ्ग और मंत्रीपद द्वयर्थक हैं, सो दूसरा अर्थ यह है कि यदि कोई भुजङ्ग (काला सांप) किसी व्यक्ति पर कदाचित् क्रोधित हो जाय अर्थात् काट खाय, तो मन्त्री अर्थात् विष-मंत्र के ज्ञाता गारूड़ी लोग भी उसे बचा नहीं सकते हैं । राजा के ऐसे प्रबल प्रताप को देख कर शत्रुगण स्वयं ही आकर उसके चरणों की सेवा करते थे ।। हे तात जानूचितलम्बबाहो नाङ्गं विमुञ्चेत्तनुजा तवाहो । सभास्वपीत्थं गदितुं नृपस्य कीर्तिः समुद्रान्तमवाप तस्य ॥११॥ १ कवर्ग - क, ख, ग, घ, ङ । २ चवर्ग - च, छ, ज, झ, ञ । ३ टवर्ग - ट, ठ, ड, ढ, ण । ४ पवर्ग - प, फ, ब, भ, म । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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