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योगः सदा वेदनया विधेः स शूली किलाभूदपराजितेशः । गदाञ्चितो माधव इत्थमस्य निरामयस्य क्व सपो नृपस्य ॥५॥
विधि (ब्रह्मा) के तो सदा वेद-ज्ञान या वेदना के साथ संयोग है, और अपराजितेश्वर वह महादेव शूल (उदर-व्याधि एवं त्रिशूल) से संयुक्त है, तथा माधव (विष्णु) सदा गदाञ्चित गद अर्थात् रोग से एवं गदा ( शस्त्रविशेष) युक्त है । फिर इस निरामय (नीरोग) राजा की समता कहां है ॥५॥
भावार्थ संसार में ब्रह्मा, महेश और विष्णु ये तीनों देवता ही सर्व श्रेष्ठ समझे जाते हैं । किन्तु वे तीनों तो क्रमशः काम - वेदना, शूल और गदाञ्चित होने से रोग-युक्त ही है और यह राजा सर्व प्रकार के रोगों से रहित पूर्ण नीरोग है। फिर उसकी उपमा संसार में कहां मिल सकती है ?
यत्कृ ष्णवर्त्मत्वमृते प्रतापवह्निं सदाऽमुष्य जनोऽभ्यवाप । ततोऽनुमात्वं प्रति चाद्भुतत्वं लोकस्य नो किन्तु वितर्कसत्त्वम् ॥६॥ इस राजा की प्रताप रूप अग्नि को लोग सदा ही कृष्ण वर्त्मत्व (धूमपना) के बिना ही स्वीकार करते थे । किन्तु फिर भी अनुमान के प्रति यह अद्भुतपना लोक के वितर्कणा का विषय नहीं हुआ
॥६॥
भावार्थ न्यायशास्त्र की परिभाषा के अनुसार साधन से साध्य के ज्ञान को अनुमान कहा जाता है । जैसे धूम- को देखकर अग्नि का ज्ञान करना । परन्तु राजा तो कृष्णवर्त्मा अर्थात् पापाचार से रहित था फिर भी लोग कृष्णवर्त्मा (काले मार्ग वाला धूम) के बिना ही इसके प्रताप रूप अग्नि का अनुमान
. करते थे । इतने पर भी न्यायशास्त्र के उक्त नियमोल्लघंन की लोगों कोई चर्चा नहीं थी ।
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मृत्त्वं तु संज्ञास्विति पूज्यपादः नृपोऽसकौ धातुषु संजगाद । ममत्वहीनः परलोक हे तोस्तदस्य धामोज्ज्वलकीर्ति के तोः
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आचार्य पूज्यपाद ने अपने व्याकरण शास्त्र में मृत्त्व ( प्रातिपदिकत्व) को संज्ञाओं में कहा (घातुपाठ में नहीं)। किन्तु ममत्व - हीन इस सिद्धार्थ राजा ने तो मृत्त्व अर्थात् मृतिकापन को तो पार्थिव धातुओं में गिना है । यह सब इस उज्वल कीर्तिशाली और परलोक के लिए अर्थात् परभव और अन्य जनों को हितार्थं प्रयत्न करने वाले इस राजा की महत्ता है ॥७॥
भावार्थ जैनेन्द्र व्याकरण में मनुष्य आदि नामों की मृत्संज्ञा की गई है, भू आदि धातुओं की नहीं । किन्तु सिद्धार्थ राजा ने उसके विपरीत सुवर्णादि धातुओं में मृत्पना ( मृत्तिकापन) मानकर मनुष्यों में आदरभाव प्रकट किया है । सारांश यह राजा अपनी प्रजा की भलाई के लिए सुवर्णादि-धन को मिट्टी के समान व्यय किया करता था ।
सा चापविद्या नृपनायकस्य लोकोत्तरत्वं सखिराज पश्य । स मार्गणौघः सविधं गुणस्तु दिगन्तगामीति विचित्रवस्तु ॥८ ॥
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