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________________ निःशेषनम्रावनिपालमौलि-मालारजः पिञ्जरितांघिपौलिः । सिद्धार्थनामाऽस्य बभूव शास्ता कीर्तीः श्रियो यस्य वदामि तास्ताः ॥१॥ समस्त नम्रीभूत भूपालों के मौलियों (मुकुटों) की मालाओं के पुष्प-पराग से पिञ्जरित (विविधवर्णयुक्त) हो रहा है पाद-पीठ जिसका, ऐसा सिद्धार्थ नाम का राजा इस कुण्डनपुर का शासक हुआ। जिसकी विविध प्रकार की कीर्तियां और विभूतियां थी । मैं उनका वर्णन करता हूँ ॥१॥ सौवर्ण्य मुद्वीक्ष्य च धैर्यमस्य दूरं गतो मेरुरहो नृपस्य । मुक्तामयत्वाच्च गमीर भावादेतस्य वार्धिग्र्लपितः सदा वा ॥२॥ इस सिद्धार्थ राजा के सौवर्ण्य (सुन्दर रूप और सुवर्ण-भंडार) को, तथा धैर्य को देखकर ही मान सुमेरू पर्वत, दूर चला गया है । इसी प्रकार इस राजा के मुक्तामयत्व और गम्भीर-भाव से समुद्र सदा के लिए मानों पानी-पानी हो गया है ॥२॥ __ भावार्थ - सुमेरु को अपने सुवर्णमय होने का, तथा धैर्य का बड़ा अंहकार था । किन्तु जब उसने सिद्धार्थ राजा के अपार सौवर्ण्य एवं धैर्य को देखा, तो मानों स्वयं लज्जित होकर के ही वह इस भरत क्षेत्र से बहुत दूर चला गया है । समुद्र को अपने मुक्तामय (मोती-युक्तं) होने का और गम्भीरता का बड़ा गर्व था । किन्तु जब उसने सिद्धार्थ राजा को मुक्त-आमय अर्थात रोग-रहित एवं अगाध गाम्भीर्य वाला देखा, तो मानों वह अपमान से चूर होकर पानी-पानी हो गया । यह बड़े आश्चर्य की बात है। रवेर्दशाऽऽशापरिपूरकस्य करैः सहस्त्रैर्महिमा किमस्य । समक्षमेके न करेण चाशासहस्रमापूरयतः समासात् ॥३॥ अपने सहस्र करों (किरणों) से दश दिशाओं को परिपूर्ण करने वाले सूर्य की महिमा इस सिद्धार्थ राजा के समक्ष क्या है ? जो कि एक ही कर (हाथ) से सहस्रों जनों की सहस्रों आशाओं को एक साथ परिपूर्ण कर देता है ॥३॥ भूमावहो वीतकलङ्कलेशः भव्याब्जवृन्दस्य पुनर्मुदे सः । राजा द्वितीयोऽथ लसत्कलाढय इतीव चन्द्रोऽपि बभौ भयाढ्यः ॥४॥ अहो ! इस भूतल पर कलङ्क के लेश से भी रहित, भव्य जीव रूप कमल-वृन्द को प्रमुदित करने वाला और समस्त कलाओं से संयुक्त यह सिद्धार्थ राजा तो अद्वितीय चन्द्र है, यह देखकर ही मानों चन्द्रमा भी भयाढ्य अर्थात् भय से युक्त अथवा प्रभा से संयुक्त हो गया है ॥४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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