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________________ Preeररररररररर रररररररररररररररररर मृगीदशश्चापलता स्वयं या स्मरेण सा चापलताऽपि रम्या । मनोजहाराङ्ग भृतः क्षणेन मनोजहाराऽथ निजेक्षणेन ॥२५॥ इस मृगनयनी की जो स्वाभाविक चपलता थी उसी को कामदेव ने अपनी सुन्दर धनुष-लता बनाई, क्योंकि कामदेव को हार के समान हृदय का अंलकार मानने वाली वह रानी अपने कटाक्ष से क्षण मात्र में मनुष्यों के मन को हर लेती थी ॥२५॥ अस्या भुजस्पर्धनगर्द्धनत्वात्कृतापराधं समुपैमि तत्त्वात् । अभ्यन्तरुच्छिन्नगुणप्रपञ्चं मृणालकं नीरसमागतं च ॥२६॥ इस रानी की भुजाओं के साथ स्पर्धा करने में निरत होने से किया है अपराध जिसने, ऐसे मृणाल (कमल-नाल) को मैं भीतर से खोखला और गुण-हीन पाता हूँ । साथ ही नीर-समागत अर्थात् पानी के भीतर डूबा हुआ, तथा नीरसं+आगत अर्थात् नीरसपने को प्राप्त हुआ देखता हूँ ॥२६॥ भावार्थ - कवि ने कमल-नाल के पोलेपन और जल-गत होने पर उत्प्रेक्षा की है कि वह रानी की भुजाओं के साथ स्पर्धा करने पर पराजित होकर लज्जा से पानी में डूबा रहता है । या पक्षिणी भूपतिमानसस्यष्टा राजहंसी जगदेक द्दश्ये । स्वचेष्टितेनैव बभूव मुक्ता-फलस्थितिर्या विनयेन युक्ता ॥२७॥ जैसे राजहंसी मान-सरोवर की पक्षिणी अर्थात् उसमें निवास करने वाली होती है, उसी प्रकार यह रानी भूपति के मन का पक्ष करने वाली थी, इसलिए (सर्व रानियों में अधिक प्यारी होने से) पट्टरानी थी । राजहंसी अपनी चेष्टा से मुक्ताफलों (मोतियों) में स्थिति रखने वाली होती है अर्थात् मोतियों को चुगती है और रानी अपनी चेष्टा से मुक्त किया है निष्फलता को जिसने ऐसी थी, अर्थात् सफल जीवन बिताने वाली थी । राजहंसी वि-नय (पक्षियों की रीति) का पालन करने वाली होती है, और यह रानी विनय से संयुक्त थी, अर्थात् विनय गुण-वाली थी ॥२७॥ प्रबालता मूर्त्यधरे करे च मुखेऽब्जताऽस्याश्चरणे गले च । सुवृत्तता जानुयुगे चरित्रे रसालताऽभूत्कु चयोः कटित्रे ॥२८॥ ___ इस रानी के शिर पर तो प्रबालता (केशों की सघनता) थी, ओठों पर मूंगे के समान लालिमा थी और हाथ में नव-पल्लव की समता थी । रानी के मुख में अब्जता (चन्द्र-तुल्यता) थी, चरणों में कमल-सद्दश कोमलता थी और गले में शंख-सद्दशता थी । दोनों जंघाओं में सुवृत्तता (सुवर्तुलाकारता) थी और चरित्र में सदाचारिता थी। दोनों स्तनों में रसालता (आम्रफल-तुल्यता) थी और कटित्र (अधोवस्त्रघांघरा) पर रसा-लता (करधनी) शोभित होती थी ॥२८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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