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पद्यानुवाद - जिस अवस्था दोषित है वह सकल अवस्था जाणना , तथा दोषरहित निष्कल अवस्था वह सत्य मानना । निज पंच देह से रहित होते परमपदस्थितदशा , को प्राप्त वीतराग देव ने ही न अन्ये वह दशा ॥ १६ ॥ शब्दार्थ - • दोषसम्पूर्णः कर्मजनित जन्मादि दोषों से सम्पूर्ण (सहित) होने पर। सकलः=भवावस्था में होने वाले दोषों से युक्त सकल हैं। दोषजितः= उक्त प्रकार के राग-द्वेषादि दोषों से रहित होने पर मुक्तावस्था में । पञ्चदेहविनिर्मुक्तः=ौदारिकादि पांच देह-शरीरों से रहित, तथा परमं सर्वोच्च मुक्तिस्थानरूप । पदम् =पद को अर्थात् परमपद को । सम्प्राप्तः= प्राप्त करने पर । निष्कल: =उक्त प्रकार की कर्मकला से रहित हैं। श्लोकार्थ
जो कर्म-जन्म-मरणादि कला से युक्त है वह दोषों से सम्पूर्ण भरा हुआ है, और जो कर्म-कला से रहित है वह दोषरहित अर्थात् सर्वथा निर्दोष है। शिव महादेव जिनेश्वर भगवान तो औदारिकादि पांचों देह-शरीरों से सर्वथा मुक्त होकर परमपद को यानी सिद्धिपद-मोक्ष स्थान को प्राप्त कर चुके हैं।
श्रीमहादेवस्तोत्रम्-५८ For Private & Personal Use Only
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