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भावार्थ -
जिस देव ने (अहिंसा, संयम और तप के बल से) अति उत्कट हिंसा आदि में प्रवृत्ति कराने तथा स्थायी एवं विशेष परिमाण में होने के हेतु महान् क्रोध, गुरु आदि के प्रति अवज्ञा कराने वाले तथा अत्यन्त अधिक होने के कारण जाति-कुल आदि का महान् मान-अभिमान, पर प्रवञ्चना रूप महान् माया (अपार माया), अविनयादिक का प्रेरक तथा बलवत्तर बलादिक के अभिमान से होने वाली महान् मद उद्धतता, एवं दुस्त्याज्य महान् लोभ, इन सभी का विनाश-त्याग किया है अर्थात् जो देव महा क्रोधमान-माया-लोभ रूप कषाय रहित एवं महामद रहित अर्थात् निर्मद हैं, वे देव ही वीतराग महादेव कहे जाते हैं अन्य नहीं ।। ११ ।।
[१२] अवतरणिका -
प्रकारान्तरेणापि महादेवत्वमित्याह
मूलपद्यम् - महानन्ददये यस्य, महाज्ञानी महातपाः ।। महायोगी महामौनी, महादेवः स उच्यते ॥.....
म-३
श्रीमहादेवस्तोत्रम्-३३
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