________________
भावार्थ
अपने सम्यग् ज्ञानादिक का महान् उत्कर्ष होने पर भी महा मद (अभिमान-अहंकार) से रहित होने के हेतु तथा किसी भी प्रकार के मद नहीं रहने के कारण हे महान् निर्मद ! किसी भी प्रकार का परिग्रह नहीं होने से तथा समस्त प्रकार के लोभ से रहित होने के हेतु हे महान् निर्लोभ एवं असाधारण तथा अलौकिक निरभिमानता, निर्लोभता, विश्व के सभी जीवों का महान् उपकार तथा लोकालोकप्रकाशक केवलज्ञान इत्यादि अनेक महान् गुणों से समलंकृत ऐसे हे महादेव ! (हे महेश्वर देव ! ) आपको मेरा (मन-वचन-काया से हार्दिक) नमस्कार अर्थात् प्रणाम है। अत एव सर्व गुणों से परिपूर्ण हे महादेव-जिनेश्वर देव ! विश्वभर में केवल आप ही हो। इसलिये मेरे सर्वदा नमस्करणीय, वन्दनीय, पूजनीय-सेवनीय एवं आदरणीय आदि आप ही हो । अन्य कोई नहीं ।। ८ ।।
[६] अवतरणिका -
राग-द्वेषाद्यभावान्महादेवत्वमाह--- मूलपद्यम् - महारागो महाद्वेषो, महामोहस्तथैव च । कषायश्च हतो येन, महादेवः स उच्यते ॥
"श्री महादेवस्तोत्रम्-२५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org