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है । णमो अरिहंताणं / अरहन्तों को नमस्कार हो ।
तब ये
जब अरिहन्तों की आयु थोड़ी ही बाकी रह जाती है योगनिरोध कर शेष चार प्रघाति कर्मों ( वेदनीय, आयु, नाम, गोत्र ) का भी क्षय कर देते हैं और सदा-सदा के लिए मुक्त हो जाते हैं तथा ऊर्ध्वगमन स्वभाव के कारण इनकी शुद्ध आत्मा लोक के ऊपर अग्रभाग में जाकर ठहर जाती है । सम्पूर्ण कर्मों का क्षय हो जाने के बाद मुक्तदशा में केवलियों में किसी तरह का अन्तर नहीं होता यद्यपि संसार दशा में सामान्य केवली की अपेक्षा तीर्थंकर अधिक पूज्य होते हैं। मुक्त जीव सिद्ध कहलाते हैं । णमो सिद्धाणं / सिद्धों को नमस्कार हो ।
इस प्रकार जैन दृष्टि से अर्हन्त पद और सिद्ध पद प्राप्त जीव ही ईश्वर, देव या महादेव कहलाते हैं । वास्तव में महान् देव तो ये ही हैं, नामधारी नहीं । इनका संसार से कोई सम्बन्ध ही नहीं रहता । इसकी रचना करना, इसका पालन-पोषण करना, इसे नष्ट करना जैसे किसी काम में इनका कोई हाथ नहीं होता । न ये किसी का भला-बुरा करते हैं, न किसी को कोई दण्ड देते हैं । न स्तुति से प्रसन्न होते हैं, न निन्दा से अप्रसन्न ! आत्मवैभव के अतिरिक्त इनके पास अन्य कुछ भी नहीं होता । जैन सिद्धान्त के अनुसार सृष्टि स्वयंसिद्ध है । जीव अपने-अपने कर्मों के अनुसार स्वयं ही सुख-दु:ख पाते हैं ।
महादेवस्तोत्रम् प्रसिद्ध जैनाचार्य कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य की मधुर ललित रचना है । प्रसिद्धि है कि इस स्तोत्र का प्ररणयन उन्होंने गुजरात के प्रसिद्ध सोमनाथ के मन्दिर में बैठ कर किया था । आचार्यश्री ने कुल ४४ श्लोकों में बड़े ही तर्कपूर्ण ढंग से यह स्थापित किया है कि सच्चे महादेव तो जिन ही हैं, अन्य तो मात्र नाम से हैं । महादेव या महान् देव में पाये जाने वाले समस्त गुरण जिनेन्द्र भगवान में ही देखे जा सकते हैं अन्य किसी में नहीं अतः 'महादेवः स उच्यते"
म. -दो
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-नो
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