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________________ क्योंकि यद्यपि अभी वह सशरीर (सकल परमात्मा ) है किन्तु घातिकर्मों का नाश हो जाने के कारण मुक्तात्मा के समान ही है । इन कर्मों का नाश करने के कारण उसे ( अरि-रज- रहस विहीन ) अरिहन्त भी कहते हैं, क्योंकि उसने राग, द्वेष, कषाय तथा कर्म रूपी शत्रुओंों को जीत लिया है अतः उसे जिन भी कहते हैं । केवली जिन दो प्रकार के हैं (१) सामान्य केवली और ( २ ) तीर्थङ्कर केवली । सामान्य केवली अपनी ही मुक्ति की साधना करते हैं किन्तु तीर्थंकर केवली अपनी मुक्ति की साधना के बाद संसार के जीवों को भी समस्त दुःखों से छूटने का उपाय बताते हैं । इनके उपदेश से अनेक संसारी जीव संसार रूपी समुद्र से पार उतर जाते हैं, तिर जाते हैं । इसलिए ये तीर्थ स्वरूप या तोर्थङ्कर कहे जाते हैं । तीर्थङ्कर कभी किसी परमात्मा के अवतार रूप नहीं होते बल्कि संसार के जीवों में से ही कोई जीव प्रयत्न करते-करते लोककल्याण की भावना से तीर्थङ्कर पद प्राप्त करता है । तीर्थङ्कर पद प्राप्त करने वाले जीव के माता के गर्भ में आने पर माता को शुभ स्वप्न दिखाई देते हैं । तीर्थंकरों के पंचकल्याणक – गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान, निर्वाण होते हैं जिनमें इन्द्रादिक भो सम्मिलित होते हैं । इस पंचकल्याणक रूप महापूजा के कारण तीर्थंकर को अर्हत् भी कहा जाता है । तीर्थङ्कर ग्रनन्त चतुष्टय ( दर्शन, ज्ञान, सुख और वीर्य ) के अधिपति होते हैं । ये साक्षात् भगवान या ईश्वर होते हैं । जैन वाड्मय में इनके ऐश्वर्य का विपुल वर्णन है । ये जन्म से ही चार ज्ञान के धारी होते हैं । केवलज्ञान हो जाने के बाद इनका उपदेश सुनने के लिए धर्मसभा जुड़ती है जिसमें पशु-पक्षी तक सम्मिलित होते हैं । यह धर्मसभा - समवसरण कहलाती है जिसका अर्थ होता है – समान रूप से सबका शरणभूत । केवलज्ञान उपलब्ध होने के बाद से ये अपना शेष जीवन लोक के जीवों का उद्धार करने में ही बिताते हैं - इसी से नमस्कार मंत्र में इनको प्रथम स्थान दिया गया Jain Education International - प्राठ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002760
Book TitleMahadev Stotram
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSushilmuni
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandiram Sirohi
Publication Year1985
Total Pages182
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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