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कहना बिल्कुल सार्थक और समीचीन है । प्रारम्भ में १९ श्लोकों में गुणों के आधार पर प्राचार्यश्री ने सिद्ध किया है कि शिव, शंकर, महेश्वर, स्वयम्भू, परमात्मा, महादेव जिन ही हैं । एक मूर्ति के तीन भाग रूप कथन भी दर्शन - ज्ञान - चारित्र से युक्त होने वाले जिन पर ही घटित होता है । आचार्यश्री ने अनेक तर्क देकर लगभग तेरह श्लोकों में यह सिद्ध किया है कि "परस्परविभिन्नानां एकमूर्तिः कथं भवेत्" (२१) । चार श्लोकों (३४-३७ ) में आचार्यश्री ने वीतराग भगवन्त में आठ गुण स्वीकार किये हैं और ३८ वें श्लोक में यह घोषित किया है कि मोक्ष को अभिलाषा रखने वाले जीव को पुण्य और पाप से मुक्त; राग और द्वेष से रहित ऐसे अर्हन् वीतराग जिनेश्वर देव को ही नमस्कार - प्रणाम करना चाहिए । ३६ वें श्लोक में 'अहं' शब्द में ब्रह्मा-विष - महेश के स्वरूप की परिकल्पना की है । ४० से ४३ तक श्लोकों में 'अर्हत्' शब्द के प्रत्येक वर्ण की सुन्दर व्याख्या प्राचार्यश्री ने की है और अन्त में गुरणों के उपासक आचार्यश्री पक्षपात को छोड़ कर यह घोषित करते हैं कि
भवबीजाङकुरजनना, रागाद्याः क्षयमुपगता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णर्वा, हरो जिनो वा नमस्तस्मै ॥
मुझे नाम से कोई प्रयोजन नहीं, जिसने रागद्वेष का क्षय कर दिया वही मेरे लिए वन्दनीय और नमस्करणीय है ।
अनुष्टुप् वृत्त में लिखा गया यह लघु स्तोत्र शान्त रस और प्रसाद गुरण से परिपूर्ण है । पाठक को पढ़ते ही अर्थ की प्रतीति आसानी से हो जाती है । प्रस्तुत संस्करण आचार्य श्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वरजी की मनोहरा नामक संस्कृत टीका, हिन्दी पद्यानुवाद तथा हिन्दी गद्यानुवाद सहित प्रकाशित किया जा रहा है । यह संस्कृत टीका पूज्यश्री ने प्राध्यापक श्री जवाहरचन्द्र पटनी के अनुरोध पर लिखा है । टोका भी बड़ी सरल और प्रवाहपूर्ण है । प्रत्येक श्लोक
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- दस
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