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________________ ७०४ जयोदय-महाकाव्यम् [९१-९३ मृदुपद्मशः सुमध्यमायाः स्वभुजाभ्यां कचवन्दबन्धने । भुजमूलमथोन्नतं तिरस्तः शनकैः सम्प्रति सस्वजेऽभिसारी ॥११॥ टीका-अभिसरतीत्यभिसारी कामुकः पुरुषः स्वभुजाभ्यां, मृदुनी पदम इव वृशौ यस्याः सा तस्याः, शोभनं मध्यं मध्यभागो यस्याः सा तस्याः नायिकाया स्व भुजाभ्यां स्वकीयबाहुभ्यां कचवन्यस्यबन्धने तत्परा सन्, शनकैः क्रमशस्तस्या भुजमूलमथोन्नतमूवभागं तिरस्तस्तिर्यग्भागञ्च सम्प्रति सस्वजे समालिलिङ्ग ॥११॥ सुदृशां दृगुपान्तरक्तता प्रथमं या हि तिरोहिताजनैः । अधुना द्विगुणीकृता जलेरन . बद्धय॑तयेव निर्मलेः ॥१२॥ टोका--सुदृशां मुग्धाक्षीणां दृशां चक्षुषामुपान्तेषु या रक्तता नेत्रप्रान्तारुणता, प्रथममजनैः कज्जलैस्तिरोहिता विलुप्तासीत् सेवाधुना निर्मलैजल रनुबद्धय॑तयेव स्पर्षावशतयेव द्विगुणीकृता परिवृद्धि नीतेत्यर्थः । उत्प्रेक्षालंकारः ॥९२॥ शुचि सिप्रेझरानजानती समुदीक्ष्यात्महवीशमन्तिके । मुहुरम्बुजलोचना तनुं स्नपनाद्री निरवापयच्चिरम् ॥१३॥ टीका--काचिदम्बुजलोचना, अन्तिके समीपे एवात्मनो हृवीशं भर्तारं समुदीक्ष्य दृष्ट्वा तदनुभावात्सजातान् शुचीन् सिप्राणां सात्त्विकभावोद्भूतधर्मजलानां झरान् प्रवाहान् अजानती नानुमन्यमाना स्नपनामिव तनु मत्वा मुहुः पुनः पुनश्चिरं दीर्घकालं निरवापयत् प्रोज्छयामास ॥९३॥ रो ही रहा था। यह उत्प्रेक्षा और अपह नुतिके मेलसे संकर अलंकार है ॥१०॥ ___ अर्थ-कोई एक पुरुष कोमल कमलके समान नेत्रों तथा सुन्दर कमर वाली अपनी स्त्रीके केशपाशको अपनी भुजाओंसे बांधनेके लिये तत्पर हुआ और इस समय वह स्त्रीके कक्ष तथा उन्नत पार्श्व भागका धीरे-धीरे स्पर्श करता रहा ॥९॥ अर्थ-स्त्रियोंके नेत्र कोणों की जो लालिमा पहले कज्जल से विलुप्त हो गई थी वही इस समय निर्मल जलके द्वारा मानों ईष्यासे ही दूनी कर दो गयी थी यह उत्प्रेक्षा अलंकार है ॥१२॥ अर्थ-कमलके समान नेत्रों वाली किसी स्त्रीने समीप ही अपने पतिको देखा। फलस्वरूप सात्त्विकभावके रूपमें उसके शरीरसे स्वच्छ पसीना झरने लगा। उसे न समझ वह शरीरको स्नान जलसे ही गीला समझती रही और उसे बार बार पोंछती रही ॥९॥ १ निदाघसलिले सिप्रेः' इति विश्व० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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