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________________ ८८-९० ] चतुर्दश सर्गः ७०३ नाना स्त्रीणां कुलकैः समूहैः, कथंभूतेस्तैः ? चेलानां वस्त्राणामञ्चले : प्रान्तभागे: लावण्यमिव क्षद्भिः सरसस्तटाकादर्थाज्जलस्रोतसः उद्धारं प्राप्तं तैरित्युत्प्रेक्षालंकारः ॥ ८७॥ तरुणीं समुत्तरन्तीं तोयत उत्फल्लतामरसहस्ताम् । हरिरामामिव सिन्धुनिर्मथनात् ||८८ || अनुमेनिरे नरा टीका - नरास्तदानीमुल्फुल्लं विकसितं च तत्तामरसं कमलं हस्ते यस्यास्तां तोयतो जलात्समुत्तरन्तीं निर्गच्छन्तीं कांचित्तरुणों सिन्धोः समुद्रस्य निर्मथनान्निर्गतां लक्ष्मीमिवानुमेनिरे । उपमालंकारः ॥ ८८ ॥ तरलेरलकैः समाकुला ललनाऽऽलिङ्गनमङ्गरागिणा । अनुकूलमवाप्य सत्वरं रससारं समवाप चापरा ||८९|| टीका - अपरा तरले विकीर्यमाणरलकैः केशेः समाकुला सती साऽगं रङ्गयति भूषयति सोऽङ्गरागी प्रियतमस्तेन सार्द्धं मनुकूलमालिङ्गनमवाप्य सत्त्वरं शीघ्रमेव रसस्यानुरागस्य सारं समवाप ।। ८९ ।। अभिगम्य बिम्बमुच्चैः कुचवत्याः कचसंचयः पुनः । स्म समेति रुति परिक्षरच्छरदम्भादिव बन्धसम्भयात् ॥ ९० ॥ टीका - उच्चैः कुचवत्याः स्त्रियाः कचानां सञ्चयः केशपाशोऽधुनोन्मुक्तत्वान्नितम्बबिम्बमभिगम्य पुनर्बन्धभयाविव परिक्षरतो निर्गच्छतः शरस्य जलस्य बम्भाद् व्याजानो वनं समेति स्म । उत्प्रेक्षापह नुत्योः संकरः ॥९०॥ स्त्रियाँ वस्त्रान्तभागसे जलकी तरह सौन्दर्यको झराती हुई जल प्रवाहसे बाहर निकलीं । भावार्थ- नदीसे बाहर निकलते समय उनके वस्त्रोंके प्रान्तभागसे जो पानी झर रहा था उससे वे ऐसी जान पड़ती थीं मानों अपने सौंदर्य को ही झरा रही हों । यहाँ उत्प्रेक्षालंकार है ॥८७॥ अर्थ — विकसित कमलको हाथमें लिये, पानीसे निकलती हुई किसी युवतिको मनुष्योंने समुद्रमथनसे निकली लक्ष्मीके समान माना था । यह उपमालंकार है ||८८|| अर्थ - चञ्चल केशोंसे युक्त कोई अन्य स्त्री प्रियतमके साथ आलिङ्गनको प्राप्त होकर शीघ्र ही अनुरागके सारको प्राप्त हुई थी ॥ ८९ ॥ अर्थ --- उन्नत स्तन वाली किसी स्त्रीका केशपाश जलसे निकलते समय खुला होनेसे नितम्ब मण्डल तक लटक रहा था और उससे पानी चू रहा था उससे वह ऐसा जान पड़ता था कि अबतक तो मैं बन्धन रहित होनेसे नितम्ब मण्डलका स्पर्श करता रहा परन्तु अब बांध दिया जाऊंगा इस भयसे वह मानों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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