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७०२ जयोदय-महाकाव्यम्
[८५-८७ निरम्बरश्रोणिजुषोऽम्बुलोलनात् अपापरायाः कुलजेषु साऽधुना। चकार सख्यं लहरी तदङ्गसात्सरोजवल्लीदलदानतो रसात् ॥८५॥
टोका-अधुना जलकेलिकालेऽम्बुनो जलस्य लोलनाच्चलनाद्ध तोः निरम्बर वस्त्रवजितां श्रोणि जुषति सेवते या तस्याः, अतः कुलजेषु गोत्रशालिषु जनेषु मध्ये त्रपापराया लज्जायुक्ताया ललनात् रसात्प्रसङ्गवशाल्लहरी जलोमिरेव तदङ्गसात् तस्या अङ्गस्य समीपं सरोजवल्ल्याः कमलिन्या दलस्य पत्रस्य दानतः सख्यं सहायभावं चकार ॥८५॥
तत्याज जलं पश्चादार्तस्वरमङ्गनाजनः कलुषम् । स्मृत्वा धृष्टप्रियतां सहजामिति तां स्वकीयां सः ।।८६॥ टीका-पश्चाज्जलकेलेरनन्तरमङ्गनाजनः स्त्रीसमाजः स तां प्रसिद्धा स्वकीयां स्वसम्बन्धिनों सहजामकारणसम्भवां धृष्टः समर्थ एव प्रियो यस्मै ततामिति किल स्मृत्वार्तस्वरमार्तस्य दुःखिनो रुग्णस्येव वा स्वर इव स्वरो यस्य तत्तथा कलुष कर्वमितं खिन्नं जलं तत्याजेत्युत्प्रेक्षा ॥६॥
चेलाञ्चलैः क्षरद्भिर्जलमिव लावण्यमङ्गनाकुलकैः । उत्तीर्णमथातितरलतरङ्गरङ्गक्षमैः सरसः ।।८७॥ टीका-अथानन्तरमतितरला ये तरङ्गास्तेषां रङ्गे स्थाने अमः समर्थैरङ्गयहाँ श्लेषके कारण 'ड' और 'ल' में अभेद माना गया है। यह अर्थान्तरन्यास अलंकार है ।।८४॥ ___अर्थ-जल क्रीड़ाके समय जलकी चञ्चलतासे जिसका नितम्ब वस्त्ररहित हो गया था तथा इसी प्रकार जो कुलीन मनुष्योंके बीच लज्जित हो रही थी उस स्त्रीकी सहायता पानी की एक लहरने प्रसङ्गवश कमलिनीका एक दलपत्र पहुँचा कर की थी ॥८५॥ __ अर्थ-जलक्रीड़ाके बाद स्त्री समूहने अपनी सहज-स्वाभाविक शालीनताका स्मरण कर वियोगजन्य दुःखसे ही मानों दुःखपूर्ण शब्द करने वाले जलको छोड़ दिया था। यह उत्प्रेक्षालंकार है।
भावार्थ-टीकासे प्रकट होने वाला एक व्यङ्ग्य अर्थ यह है कि जिस प्रकार कोई सबल स्त्री 'मुझे तो उपभोग समर्थ प्रिय ही पसंद है' इस प्रकारकी अपनी स्वाभाविक परिणतिका स्मरण कर उपभोगमें असमर्थ होनेके कारण रोगीकी तरह दीन शब्द करने वाले मलिन जड-रतिक्रियानभिज्ञ पतिको छोड़ देती है उसी प्रकार स्त्री समूहने नदीके जलको छोड़ दिया था ॥८६॥
अर्थ-तदनन्तर अत्यन्त चञ्चल तरङ्गोंके बीच क्रीड़ा करने में समर्थ वे
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