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________________ ८२-८४ ] चतुर्दश सर्गः अपास्तमाल्यं च्युतयावकाधरं निरस्तत्रस्त्रं दयितेश्वरैः समम् । निषेव्यमाणं तरलं जलं बभौ मुद्दे वधूनां दलबद्यदुत्तमम् ॥ ८२ ॥ टीका - यत्तरलमपि जलं तत् दयितेश्वरैः निजनायकैः समं साद्ध अपास्तं विनष्टं यत्र यथा स्यात्तया, च्युतं व्यतीतं यावकं यस्मादेतादृगधरं रदच्छदं यत्र तद्यथा स्यात्तथा, निरस्तं गतं वस्त्रं यत्र तद्यथा स्यात्तथा निषेव्यमाणं रतवदुत्तमं सत्, तद्वधूनां मुवे हर्षाय बभौ रराजेत्युपमालंकारः ॥ ८२॥ स्वार्थभुज्जगदितिप्रकाशितात्तां जहद्भिरथ निम्नगोदिता । आत्ततृभिरियमङ्गिभिहिताद्या नदीनमहिला समर्थता ॥ ८३ ॥ टीका -अथ स्वार्थभूदिदं सर्वं जगदिति प्रकाशितात् प्रसिद्धात्सूक्तार्द्ध तोर्या नदी तामिमां जहद्भिर्जनैरुज्जिहानंस्तु निम्नं गच्छतीति निम्नगेयमित्युदिता कथिता । किन्तु आत्तभिस्तृषातुरै: पुन: सेयमेव नदीनस्य समुद्रस्य सम्पत्तिरतश्च महिला स्त्रीत्येव समर्थताङ्गिभिर्जनैहितात्स्वार्थवशात् ॥८३॥ नितम्बिनीनां जघनाघातात्तटाभिनीतं वारि तदा ताम् । कलुषतामगादपि च जडानां पराभवः कष्टकरो नाना ||८४॥ ७०१ टीका - तदा नितम्बिनीनां जघनेः श्रोणिपुरोभागैर्योसावाघातस्तस्मात्तटाभिनीतं स्फालितं च निरादरतयेकपार्श्वीकृतं च वारि कलुषतां कर्दमितां सरोषतां चागाज्जगाम । अपि हि पराभवो निरादरो जडानां मुग्धबुद्धीनां विचारहीनानां च नानाकष्टकरो भवति किं पुनरन्येषाम् । अत्र जडानां जलानामपीत्यपि । अर्थान्तरन्यासोऽलंकारः ॥ ८४ ॥ अर्थ -- जिसमें मालाएँ टूटकर गिर गयी थीं, अधरोष्ठकी लाली छूट गयी थी तथा वस्त्र भी दूर हो गया था ऐसा वह नदीका चञ्चल उत्तम जल पतिके साथ किये गये संभोग के समान स्त्रियोंके हर्षके लिये हुआ था । यहाँ उपमालंकार है ॥८२॥ अर्थ — 'जगत् स्वार्थी है' इस प्रसिद्ध सूक्तिके अनुसार जो मनुष्य नदीको छोड़कर जा रहे थे उन्होंने उसे निम्नगा कहा परन्तु जो प्यास से युक्त थे उन्होंने हितकारी होनेसे उसे समुद्रकी सम्पत्ति अथवा स्त्री माना ॥ ८३ ॥ अर्थ - जिस प्रकार विकट नितम्ब वाली स्त्रीके जघनाघातसे शय्याके किनारे तक पहुँचाया हुआ मुग्धबुद्धि वल्लभ कलुषता - सरोष अवस्थाको प्राप्त होता है उसी प्रकार स्त्रियोंके जघनाघातसे तट तक पहुँचाया हुआ नदीका जल भी कलुषता - मलिनताको प्राप्त हुआ था सो ठीक ही है क्योंकि जड-जल अथवा मुग्धबुद्धि जनों को भी पराभव नाना कष्टों को करने वाला होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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