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________________ जयोदय-महाकाव्यम् [८०-८१ जलावगाहप्रतिपत्तिकारणैकसम्भवादम्भसि संविभूषणैः । हिरण्मयैश्चारुदृशां परिच्युतः किलौर्ववह्नः शकलैव्यंशोभि तैः ॥८॥ ____टीका-जलावगाहस्य प्रतिपत्तिरनुभवनमेव कारणं तदेवको मुख्यः सम्भव: सद्भावस्तस्मादम्भसि जले परिच्युतैः स्खलितैश्चारुदृशां सुलोचनानां स्त्रीणां हिरण्मयेहेमनिर्मितः संविभूषणः कंकणादिभिस्तैः किलौर्ववर्वडवाग्नेः शकलैः खण्डैः किलेव व्यशोभि शोभा लब्धा । उत्प्रेक्षालंकारः ॥८॥ मृगीदृशां यावकरागकल्पकान्वयेन सिन्दूरकलाक्तमस्तका । पयोधियोषिन्निजनायकं तरी जगाम तावत्सुतरनितान्तरा ॥८१॥ टीका-तावरकाले पयोधियोषिन्नदी सापि मृगीदृशां स्त्रीणां चरणादिषु लग्नस्य यावकरागस्य योऽसौ कल्पक: समूहस्तस्यान्वयेन सम्बन्धेन सिन्दूरस्य कलया सौभाग्यसूचिकयाऽक्तं विभूषितं मस्तकं यस्याः सा, सुतरङ्गितं शोभनस्तरङ्ग युक्तमथवा शोभनीयविचारसहितमन्तरं मध्यं मनो वा यस्याः सा सती निजनायकं समुद्र जगामतराम् । समासोक्तिरलंकारः ॥८१॥ है यथा-'जीवन, वन, गो, पयस् , अमृत, विष', शिव और भुवन ॥७८-७९।। ___ अर्थ-जलावगाहन रूप प्रमुख कारणसे सुन्दर नेत्रोंवाली स्त्रियोंके जो सुवर्णमय आभूषण पानीमें गिर गये थे वे मानों वडवानलके खण्डोंके समान ही सुशोभित हो रहे थे । यह उत्प्रेक्षालंकार है ।।८०॥ ___अर्थ-जो स्त्रियोंके माहुरकी लालिमासे संयुक्त थी तथा सिन्दूरसे जिसका मस्तक सुशोभित हो रहा था ऐसी नदी, तरङ्गितमध्यवाली (पक्षमें अनेक उमंगों से युक्त हृदय वाली) होती हुई अपने पति समुद्रके पास वेगसे जा रही थी। भावार्थ-जिस प्रकार कोई स्त्री पैरोंमें माहुर और मस्तक पर सिन्दूरकी बिन्दी लगाकर मनमें अनेक उमंगोंको संजोती हुई पतिके पास जाती है उसी प्रकार नदी भी समुद्रके पास गई थी । यह समासोक्ति अलंकार है ॥८१॥ १. 'पयः कीलालममृतं जीवनं भुवनं वनम्' इत्यमरः । २. 'तोयं जीवनमन्विषम्' इति धनंजयः । ३. गौः पुमान् वृषभे स्वर्गे खण्डवजूहिमांशुषु । स्त्रीगविभूमिदिग्नेत्रवाग्वाणसलिले स्त्रियः ।। विश्व० ४. "शिवं मोक्षे सुखं जलम्' इति विश्व० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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