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________________ ९४-९५ ] चतुर्दश सर्गः अभिनववसनानां स्वीकृतौ तावदाभिः वधुरविरलवारीत्येवमार्द्राणि सुचिरपरिचितानि स्पष्टपद्माननाभिः । यानि बहुविरहविपत्ते चितानीव तानि । ९४ ।। टीका - स्पष्टानि विकसितानि यानि पद्मानि कमलानि तानीवाननानि मुखानि यासां तास्ताभिराभिः । अभिनववसनानां नूतनवस्त्राणां स्वीकृतौ तावद् यानि सुचिरपरिचितानि पुरातनानि, आर्द्राणि वस्त्राणि मुञ्चितानि तानि बहुविरहविपत्तवियोगदुःखादिव, अविरलवारि वधुः । उत्प्रेक्षालंकारः ॥ ९४ ॥ समुदितजलकेलिं वीक्ष्य तं पीठकेलि तत्र तावन्निरूहम् । सकल जनसमूहं रागीहाशु गच्छत्प्रयागी दिनपतिरपि शगिति हि जलराशि गन्तुमाभूत्प्रवासी ॥ ९५ ॥ टीका - विनपति: सूर्योऽयोऽपीह रागी शोणिमशाली, तथाशुगच्छन्तः प्रयागा घोटका यस्य सः तत्र तावत् समुदिता जलकेलिर्येन तं पीठकेलि घृष्टप्रायं सकलानां जनानां समूहं निरूहं निःसंकोचं वीक्ष्य, य: प्रवासी नित्यमेव गमनशीलः स सूर्यो झगिति हि जलराशि पश्चिम समुद्रं गन्तुमाभूवैच्छत् । 'पीठकेलिः पीठमवें' । 'प्रयागस्तीर्थभेदे स्याद्यज्ञे वाहे विडोजसि' इति विश्वलोचनः ॥९५॥ सकलमपि कलत्रमनुमानवं लिखितमनूक्तं ललितमतिबलम् । वधत्स्वपदबलमुचितार्थभवं Jain Education International बहु सञ्चरितदमवमलं भुवः ॥ ९६ ॥ ७०५ अर्थ - विकसित कमलके समान मुखवाली इन स्त्रियोंने नवीन वस्त्रोंको स्वीकृत - धारण करते समय जो चिरपरिचित गीले वस्त्र छोड़े थे वे विरह सम्बन्धी भारी दुःखसे ही मानो अश्रु रूपी अविरल जलको धारण कर रहे थे । यह उत्प्रेक्षालंकार है ॥९४॥ अर्थ — वहाँ अच्छी तरह जलक्रीड़ा करने वाले समूहको निःसंकोच देखकर जान पड़ता है कि सूर्य भी (पक्ष में लालिमासे) युक्त हो गया था इसीलिये नित्यगमन वह सूर्य भी शीघ्रगामी घोड़ोंसे युक्त हो शीघ्र ही पश्चिम इच्छा करने लगा था ॥ ९५ ॥ For Private & Personal Use Only उस घृष्ट समस्त जनरागी - अनुराग से युक्त करनेके स्वभाव वाला समुद्रकी ओर जानेकी www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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