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________________ जयोदय -महाकाव्यम् [ ९६ टीका --अपि पुनः कलेन सुन्दरेण शरीरेण सहितं सकलं कलत्रं नारीबलं तन्मानवं स्वस्वामिनमन्वनुमानवं लिखितं लेखपत्रमनूक्त' किमप्यनुक्त्वा ललितं सुन्दरं तत एवातिवरं, रलयोरभेदात्, । स्वेषां पदानां शब्दानां बलं यत्तत्, तथोचितार्थस्य भवः सदा यत्र तत्, समीचीनं चरितं बवावीति सञ्चरितपर्व, तथा अवमलं निर्दोषं, भुवो बहु संसारकार्यस्य समर्थकं वधन् धृतवद् बभूव सन्दधार । सरिदवलम्बश्चक्रबन्धोऽयम् ॥ ९६ ॥ । ७०६ अर्थ - सुन्दर शरीर से सहित स्त्री समूहने अपने प्रिय जनके प्रति उस पत्रको धारण किया जो मौखिक सन्देह कहे बिना लिखा गया था, मनोहर था, अत्यन्तवर - श्रेष्ठ था, अपनी शब्दावलीकी सामर्थ्य से सहित था, जिसमें उचित अर्थका सद्भाव था, जो समीचीन चरितको देने वाला था, निर्दोष था और संसार की श्रेष्ठ वस्तु स्वरूप था — सांसारिक कार्योंको सिद्ध करने वाला था । यह सरिदव लम्ब नामक चक्रबन्ध है ॥९६॥ Jain Education International श्रीमान् श्रेष्ठिचतुर्भुजः स सुषुवे भूरामरोपाह्वयं वाणीभूषणवर्णनं घृतवरीदेवी च यं धीचयम् । वृत्तोत्तुङ्गतरङ्ग वारि सरिताख्याते प्रसन्नः स्वयं सर्वोत्त चतुर्दशस्तदुदितेऽस्मिन्सुप्रबन्धेऽप्ययम् ॥१४॥ इति वाणीभूषण ब्रह्मचारि भूरामल शास्त्रि विरचिते जयोदयापरनाम सुलोचना स्वयंवर नाम महाकाव्ये सरिदम्बलम्बनामा चतुर्दशः सर्गः समाप्तः For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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