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७२-७३ ] चतुर्दश सर्गः
६९७ टोका-भुवि पृथिव्यामितस्तावत्तज्जलकेलिकाले तस्प्रत्ययस्य प्रायः सवस्विपि विभक्तिषु सद्भावात् । विस्फुरवृशां विकसितचक्षुषां स्त्रीणां वाससा वस्त्रण रसैर्जलेनिषेकात्समभिसेचनात् किल शीता तिमता शीतस्य पीडामनुभवतेवापि पुनः शीतसमीरभाजाऽतिशीतलवायुचानुभवता तेन कामोऽमजुषोर्यथेष्टं वा स्मरमयं वोष्मभाव संदधतोः स्तनयोरुपरि आगतं प्राप्तमित्युत्प्रेक्षा ॥७१॥ शमितः प्रियकरवारियिधानात् मदनजातवेदा ललनानाम् । धममजता-सौ कुतोऽन्यथा समुज्जजम्भे दृगजनकथा ॥७२॥
टीका-ललनानां स्त्रीणां मदनः काम एव जातवेदा अग्निर्वाहकत्वात्स प्रियस्य बल्लभस्य करेण वारिविधानाज्जलसेचना हेतोः शमित उपशमभावमित: किलान्यथा तु पुनशोश्चक्षुषोरञ्जनं यन्निर्गतमित्येषा कथा यस्याः साऽसौ धूमस्य मञ्जता मनोज्ञता कुतः समुज्जजम्भे ॥७२॥ कठिनस्तनस्थले वनितायाः सिक्तं रसिना बग्धमथायात् । तदोष्ण्यमावायोत्पतज्जलं पुरःस्थरिपुयोषितो हृदबलम् ।।७३॥
टीका-अथ वनिताया वल्लभायाः कठिने स्तनस्थले रसिना प्रीतिकरण सिक्तं यज्जलं तद् तद्गतमोष्ण्यमादाय गृहीत्वोत्पतत् सद् रिपुयोषितः सपत्न्या हवो मनसो बलं सत्वं वन्धु भस्मयितुमयात् जगाम पुरः स्थिताया इत्युत्प्रेक्षा ॥७३॥
अर्थ-पृथिवीपर जलक्रीडाके समय जलसे सींचे जानेके कारण विकसित नेत्रोंवाली स्त्रियोंके वस्त्र मानों शीतकी बाधासे सहित थे साथ ही शीत वायुकी भी वाधाका अनुभव कर रहे थे अतः काम जन्य गर्मीसे युक्त स्त्रियोंके स्तनोंके ऊपर आ लगा । यह उत्प्रेक्षा अलंकार है॥७१।। ____ अर्थ-ऐसा जान पड़ता है कि स्त्रियोंकी कामाग्नि पतिके हाथोंसे संपन्न जलसेचनसे शान्त की गयी थी। यदि ऐसा न होता तो धूमकी जो मनोहरता बढ़ रही थी वह नेत्रोंसे निर्गत अञ्जन है ऐसा कहना कैसे ठीक होता ?
भावार्थ-जलक्रीडाके समय स्त्रियोंके नेत्रोंका काजल घुलकर वक्षःस्थलपर आ गया था और श्यामताके कारण वह धूमके समान जान पड़ता था अतः यह कल्पना की गई कि हृदयमें विद्यमान कामरूपी अग्नि पतिके हाथोंसे सींचे गये जलसे शान्त हुई थी, उसीका यह धूम उठ रहा है। अग्नि बुझानेपर धूम उठता ही है ॥७२॥ ___ अर्थ-स्त्रीके कठिन वक्षःस्थलपर रसिक-पतिके हाथोंसे सींचा गया जल स्तनोंकी उष्णताको लेकर जो उछल रहा था वह ऐसा जान पड़ता था मानों सामने खड़ी सौतके मनोबलको भस्म करनेके लिये ही जा रहा था। यह उत्प्रेक्षालंकार है ॥७॥
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