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६९८ जयोदय-महाकाव्यम्
[७४-७६ कमिति च कान्तकरादायातं जातं पत्न्या यदेव सातम् । शरतामत्र वैरिरामाया हृदयभेदनायैतदुतायात् ॥७४।। टीका-यदेव जलं कमन्ते पार्वे यस्य तस्य कान्तस्य करादायातम् तस्मात् कमिति जलं तदेव सुखं चेति स्मृतिपूर्वकं पल्याः सातमानन्दकरम् जातमेतदेवोतात्र वैरिरामायाः सपल्या हृदयस्य भेदनाय शरतां वाणरूपतां शरापरनामत्वादयाज्जगामेति विरुद्धभावोऽलङ्कृतिः ॥७४॥ न सुष्ठु मष्टाऽगुरुपत्रततिस्त्वकया लोकोत्तरकान्तिमति । वञ्चितेतिनिजगण्डमण्डलमर्पयति स्म नियोगिनेऽमलम् ।।७५॥
टीका--हे लोकोत्तरकान्तिमति ! त्वयैव त्वकया गण्डयोः स्थिताऽगुरुपत्राणां ततिः पंक्तिः सुष्टु न मृष्टा किलेत्युक्त्वा वञ्चिता सती साऽमलमपि स्वच्छमपि निजंगण्डमण्डलं नियोगिने स्वामिनेऽर्पयति स्म दत्तवतीति मौग्ध्याभिव्यक्तिरेवालङ्कृतिरत्र ॥७५॥
जलेन लौल्याद्वसनेऽपहते विलासवत्या जघने प्रसृते । नखमण्डलावलिच्छलतोऽभात्स्मरप्रशस्तिः प्रणीतशोभा ॥७६॥ टीका जलेन लोल्यात् स्वाभाविकतरलतया वसने दुकूलेऽपहृते दूरीकृते संति विलासवत्याः श्रीमत्याः प्रसृते जघने रतकाले समात्तानि नखमण्डलानि तेषामावलिः परम्परा तस्याश्छलतः प्रणीता शोभा यया सा स्मरस्य प्रशस्तिर्यशः स्थितिरभाबभावित्य पतित्यलंकारः ॥७६॥
अर्थ-पतिके हाथसे आया-उछाला हुआ जो जल स्त्रीके लिये सुखदायक हुआ था वही सपत्नीका हृदय विदीर्ण करनेके लिये शरता-वाणपनेको प्राप्त हुआ था। * भावार्थ-जिसके अन्त-पासमें 'क' है जल है वह कान्त हुआ अर्थात् जलमें खड़े हुए पतिने जो क-जल पत्नीके ऊपर उछाला था वही क-जल पत्नीके लिये क-सुख रूप हुआ परन्तु वही क-जल सौतके हृदयको विदीर्ण करनेके लिये शर-वाण पानेको प्राप्त हो गया। एक ही वस्तुने दो विरुद्ध कार्य किये अतः यह विरुद्ध भाव अलंकार है ।।७४॥ ____ अर्थ-हे सर्वश्रेष्ठकान्तिको धारण करनेवाली प्रिये ! 'तुमने अगुरु चन्दनसे निर्मित पत्रपतिको अच्छी तरह साफ नहीं किया है' इस तरह छली हुई स्त्रीने अपना निर्मल कपोल मण्डल पतिके लिये अर्पित किया (साथ ही कहा आप ही साफ कर दें) स्त्रीके भोलेपनका प्रदर्शन ही अलंकार है ॥७५॥
अर्थ--जलने अपनी स्वाभाविक चपलतासे किसी स्त्रीका वस्त्र दूर कर दिया जिससे उसके विस्तृत नितम्ब पर अङ्कित नखाघातको पङ्क्ति कामदेवकी प्रशस्ति-यशोगाथाके समान सुशोभित होने लगी ॥७६॥
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