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________________ ६६.६८ ] चतुर्दश सर्गः ६९५ जले प्लवन्त्यास्तरन्त्या युवत्याः सहजयोः स्वभावसम्पन्नयोरलाबुफलयोः प्रतिहार्यनुकरणकारि यदुरोजयुगलं स्तनद्वयं तत्सहकारि सहायकर तकितं विचारितं जनस्तत्रत्यप्यनुमितिरलंकारः ॥६५॥ पृथुलहरितया मुरारिरूपं फेमिति जना आत्मनः स्वरूपम् । संदिग्धादिग्धतया तद् देवमयं चानुययुः ख्यातम् ॥६६॥ टीका-जनास्तद्वारि पृथवो लहरयो भङ्गा यत्र तत्तया । अथवा पृथुलश्चासौ हरिश्च तत्तया मुरारिरूपं नारायणरूपमनुययुः। तथा कमिति नामतया आत्मनः स्वरूपमनुययुरित्येवं संदिग्धाविग्धतया ख्यातं देवमयं मेघसन्तानत्वादनुयपुरनेकप्रकारं तत्तावदिह ।६६॥ पुमांसमासीनमिहानमितिमंसमात्रके तददघनमिति । आत्मनोऽपि कृत्वा निमज्जती साऽऽश्लेषिजवात् प्रेमिणा सती ॥६७ टोका-इह पुमांसमंसमात्रके स्कन्धपर्यन्तजले किलासीनमित्यनुमिति कृत्वा तथैवास्मनोऽपि तद्वघ्नमंसमात्रमेव स्यादित्यनुमिति कृत्वा तत्र निमज्जती सती सा केनापि प्रेमिणा जवादेवाश्लेषि समालिङ्गिता ॥६॥ नितम्बमाधिस्योन्नमन्नितः पयःप्रवाहोऽवाप योषितः । मन्दरस्य कन्दरप्रवेशलीलामुदरगह्वरेऽप्येषः ॥६८॥ अनायास तैर रही थी अतः लोगोंने सहज तुम्बीफलका अनुकरण करनेवाले स्तनयुगलको उसका सहायक माना था। यह भी अनुमिति अलंकार है ॥६५॥ अर्थ--यह पृथुलहरितया-बड़ी-बड़ी लहरोंसे युक्त होनेके कारण जल है, अथवा पृथुल-हरितया-स्थूल-पुष्ट शरीर हरि-विष्णु रूप होनेके कारण मुरारिकृष्णरूप है अथवा 'क' इस नाम सादृश्यके कारण आत्मस्वरूप है, इस प्रकार संदिग्ध असंदिग्धपनेसे प्रसिद्ध देवरूप है-देवता रूप है मेघरूप है ऐसा समझकर लोग उसका अनुगमन कर रहे थे उसका सेवन कर रहे थे तात्पर्य यह है कि वह नदी का जल अनेक रूप था ॥६६॥ अर्थ-स्कन्ध पर्यन्त गहरे पानी में किसी पुरुषको खड़ा देख स्त्रीने सोचा कि यह मेरे लिये भी स्कन्धपर्यन्त गहरा होगा, ऐसी सोच वहाँ जाकर स्त्री डूबने लगी परन्तु उसके प्रेमीने वेगसे निकाल कर उसका आलिङ्गन किया ॥६७ १. 'को ब्रह्मानिलसूर्याग्नियमात्मद्योतबहिषु । कं सुखे वारिशोर्षे च' इति विश्व० । २. 'देवो राशि सुरे देवे' इति विश्व० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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